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184... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
अनेक दिनों के एकत्रित अतिचारों की संख्या अधिक होने के कारण उनके शुद्धिकरण का प्रयास विशेष रूप से आवश्यक बन जाता है। इन सब कारणों से पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण की विधियाँ लम्बी है और कायोत्सर्ग भी उत्तरोत्तर बड़े होते हैं।
पाक्षिक प्रतिक्रमण की मूल विधि का प्रारम्भ
पाक्षिकादि प्रतिक्रमण की प्रारम्भिक विधि ' वंदित्तुसूत्र' तक दैवसिक प्रतिक्रमण के समान जाननी चाहिए और उसके हेतु भी तदनुसार समझने चाहिए।
उसके बाद तुरन्त पक्खी प्रतिक्रमण शुरू करने का हेतु यह है कि पाक्षिक प्रतिक्रमण चौथा आवश्यक है और इससे पूर्व वंदित्तु सूत्र आदि के द्वारा चौथा आवश्यक ही किया जा रहा था, इसलिए उसी क्रम में वंदित्तु सूत्र के पश्चात पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण करते हैं।
संबुद्धा (ज्ञानप्राप्त, आत्म जागृत आचार्य आदि से) क्षमायाचना क्यों?
सभी अनुष्ठान गुरु आदि से क्षमायाचना करने पर ही सफल होते हैं, इसलिए पाक्षिक प्रतिक्रमण में प्रवेश करने के साथ ही मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन और द्वादशावर्त्त वन्दन पूर्वक आचार्य आदि श्रेष्ठ मुनियों से क्षमापना की जाती है। यहाँ संबुद्धा शब्द सम्यक् प्रकार से ज्ञान प्राप्त किये हुए, अन्तर्जागृत, विशिष्ट ज्ञानी, आत्मधर्म के प्रति सचेत आचार्य आदि का सूचक है ।
वर्तमान सामाचारी के अनुसार पाक्षिक प्रवेश निमित्त मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन यदि सकल संघ के साथ किया जाता है तो वह व्यक्ति प्रतिक्रमण की मंडली में गिना जाता है । इस कारण जिसने प्रतिक्रमण की स्थापना बाद में की हो तथा मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन भी पीछे से किया हो वह व्यक्ति मंडली में नहीं माना जाता और उसे छींक आ जाये तो उसका विक्षेप संघ में नहीं गिना जाता। इस परम्परागत सामाचारी को ध्यान में रखते हुए जिस व्यक्ति को छींक आने की संभावना हो उसे पाक्षिक मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन 'समुदाय के साथ नहीं करना चाहिए। इसी तरह नासमझ बालक-बालिकाओं को भी छींक आदि की संभावना होने पर पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण के समय मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन एवं प्रतिक्रमण की स्थापना पृथक् से करना चाहिए ।