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________________ प्रतिक्रमण विधियों के प्रयोजन एवं शंका-समाधान ...179 दूसरी बार में दो लोगस्ससूत्र का कायोत्सर्ग करते हैं। इस प्रकार दोनों कायोत्सर्ग में चारित्राचार की शुद्धि का अभिप्राय भिन्न-भिन्न है। प्रथम कायोत्सर्ग में दिनकृत दोषों की शुद्धि हेतु उनका स्मरण कर पूर्व भूमिका बनाई जाती है, किन्तु दूसरे में इस कायोत्सर्ग के पूर्व तक की गई प्रतिक्रमण क्रिया में किसी प्रकार की विधि या आलोचना सम्यक् प्रकार से न हुई हो उसकी विशुद्धि की जाती है। प्रतिक्रमण हेतु गर्भ (पृ. 12) में कहा भी गया है नमुक्कार चउव्वीसग-किइकम्मा लोअणं पडिक्कमणं । किइकम्म दुरालोइय, दुष्पडिक्कंते य उस्सग्गो।। __एस चरित्तुस्सग्गो...। शंका- दैवसिक प्रतिक्रमण के अन्त में गुरुदेव का कायोत्सर्ग क्यों किया जाता है? समाधान- प्रतिक्रमण में षडावश्यक के बाद की प्रक्षिप्त विधि अपनीअपनी परम्परा के अनुसार सम्मिलित की गई है। सभी परम्पराओं में गुरु को अनन्य उपकारी माना ही गया है, फिर चारों गुरुदेवों का उपकार संघ अभ्युदय की अपेक्षा से विशेष रहा हुआ है। अत: गुरु उपकारों के स्मरणार्थ तथा इससे स्व परम्परा का बोध भी होता है इसलिए गुरुदेव का कायोत्सर्ग करते हैं। रात्रिक प्रतिक्रमण के हेतु विरति भाव में की गई क्रिया निर्दोष एवं विशुद्ध फलवाली होती है इसलिए प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में सामायिक ग्रहण करते हैं। सामान्यतया रात्रिक प्रतिक्रमण के सभी हेतु दैवसिक प्रतिक्रमण के समान ही है। जिन हेतुओं में विशेषता है वे निम्नानुसार हैं सामायिक लेने के पश्चात सर्वप्रथम कु:स्वप्न-दुःस्वप्न सम्बन्धी अतिचारों का प्रायश्चित्त करने के लिए चार लोगस्ससूत्र का कायोत्सर्ग किया जाता है। कुछ परम्परा में यह कायोत्सर्ग चैत्यवंदन के बाद भी किया जाता है, किन्तु दोनों का उद्देश्य एक ही है। स्त्री-पुरुष आदि के विषय में राग युक्त स्वप्न देखना कु:स्वप्न कहलाता है और लड़ाई, संघर्ष आदि से युक्त द्वेषमय स्वप्न देखना दुःस्वप्न कहा जाता है। यदि स्त्री को आसक्ति पूर्वक देखा हो तो उस दोष की निवृत्ति के लिए 100 श्वासोश्वास परिमाण 'चंदेसु निम्मलयरा' तक चार लोगस्स का कायोत्सर्ग करना चाहिए। यदि स्वप्न में अब्रह्म का सेवन किया हो तो 'सागरवर गंभीरा' तक चार लोगस्स का चिंतन करना चाहिए।
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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