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180... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
कुःस्वप्न-दुःस्वप्न का यह अधिकार मुख्यतया स्त्री संग से रहित मुनि को अनुलक्षित करके कहा गया है और उसके निमित्त जो कायोत्सर्ग किया जाता है वह पातक की शुद्धि के अर्थ में प्रायश्चित्त रूप होने से आवश्यक के अतिरिक्त है। शंका- रात्रिक प्रतिक्रमण से पूर्व कुसुमिण - दुसुमिण के कायोत्सर्ग का रहस्य क्या है?
समाधान- प्रतिक्रमण एक भावस्पर्शी क्रिया है। इसमें आंतरिक जगत का जुड़ाव आवश्यक है। अब्रह्म आदि को घोर पाप मानने वाले साधक को ऐसा स्वप्न आ जाये तो वह अपने आप को गुनाहगार मानने लगता है और चैत्यवन्दन, स्वाध्याय आदि विशिष्ट क्रियाओं में स्वस्थ मन से जुड़ नहीं सकता। लेकिन यह कायोत्सर्ग कर लेने से पाप का प्रायश्चित्त हो गया है ऐसी प्रतीति मन को हल्का कर देती है। उसके फलस्वरूप सभी क्रियाओं में मन ठीक तरह से जुड़ा रहता है।
चैत्यवन्दन - सभी धर्मानुष्ठान देव - गुरु के वंदनपूर्वक सफल होते हैं । एतदर्थ प्रात:काल सबसे पहले इष्ट तत्त्वों को वन्दन करना चाहिए । यहाँ इसीलिए प्रथम चैत्यवन्दन किया जाता है और उसमें खरतर परम्परानुसार 'जयउसामिय सूत्र' तथा तपागच्छ आदि परम्पराओं में 'जगचिंतामणि सूत्र' से ‘जयवीयराय सूत्र’ तक सभी पाठ बोले जाते हैं। उसके बाद आचार्य आदि चार को वंदन करते हैं। इस प्रकार देव और गुरु दोनों को वंदन होता है ।
स्वाध्याय— दैवसिक प्रतिक्रमण करते समय 'सज्झाय' अन्त में की जाती है जबकि रात्रिक प्रतिक्रमण में 'सज्झाय' प्रारम्भ में करते हैं। इसके मुख्य कई कारण हैं। प्रथम तो यह है कि मुनि और गृहस्थ को रात्रि के अंतिम प्रहर में उठकर रात्रिक प्रतिक्रमण का समय न होने तक स्वाध्याय करने की आज्ञा है जो इस तरह स्वाध्याय नहीं कर सकते हैं उनके लिए जिनाज्ञा के समाचरण एवं परम्परा के निर्वहन की दृष्टि से प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में ही स्वाध्याय को जोड़ा गया है।
दूसरा हेतु यह है कि प्रातः कालीन प्रतिक्रमण के लिए यथोक्त समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। इस प्रतीक्षा के दरम्यान स्वाध्याय करने का निर्देश है। स्वाध्याय में भरत आदि महापुरुषों तथा सुलसा, चंदन बाला आदि महासतियों का स्मरण किया जाता है क्योंकि उन्होंने जैसा जीवन जीया वह हमारे लिए भी अध्यात्म का ऊँचा आदर्श है।