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________________ 174... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना समाधान- वंदित्तु सूत्र के द्वारा चार प्रकार के दुष्कृत्यों से पीछे हटते हैं जबकि इस सूत्र के माध्यम से महान उपकारी गुरुजनों के प्रति जो कुछ अविनयअपराध किया हो उसका मिथ्यादृष्कृत दिया जाता है। शंका- अब्भुट्ठिओमिसूत्र की विधि तक सभी दुष्कृत्यों का प्रतिक्रमण हो जाता है फिर 'आयरिय उवज्झाय सूत्र' क्यों बोलते हैं? समाधान- समस्त दोषों का मूल राग-द्वेष है अतः कषायों का उन्मूलन करने के लिए 'आयरिय उवज्झाय सूत्र' कहते हैं। जैन शासन में कषाय निवृत्ति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि कषाय से संसार है और कषाय मुक्ति से मोक्ष है। वैसे तो द्वादशावर्त के वंदन में दूसरा वांदणा देकर गुरु के अवग्रह में ही खड़े रहते हैं किन्तु यहाँ दूसरा वांदणा देकर कषायों को निष्कासित करने के लिए अवग्रह से बाहर हो जाते हैं। उसके बाद मस्तक पर अंजलि रखने का ध्येय हैं कि कषायों का सेवन करते हुए अभिमान किया हो तो उसे निरस्त करने के लिए लघुता का गुण होना जरूरी है जो विनय मुद्रा से प्रकट हो सकता है। यहाँ चौथा प्रतिक्रमण आवश्यक पूर्ण होता है। शंका- साधु-साध्वियों को 'आयरिय उवज्झाय सूत्र' बोलना चाहिए या नहीं? क्योंकि सामाचारीशतक आदि कुछ ग्रन्थों में निषेध है। समाधान- योगशास्त्र वृत्ति में 'काऊण वंदणं तो' ऐसा गाथा पाठ श्रावक के लिए ही कहा गया है। यदि 'अशठ' शब्द हो तो साधु एवं श्रावक दोनों के लिए समान माना जा सकता है किन्तु यहाँ ‘सढो' शब्द का प्रयोग है। भावदेवसूरिकृत सामाचारी की अवचूर्णि में उल्लिखित है कि कुछ परम्पराओं में साधु-साध्वी आयरिय उवज्झाय की तीन गाथा नहीं बोलते हैं। इस प्रकार आचार दिनकर आदि ग्रन्थों में भी यही कहा गया है कि गच्छ-परम्परा के भेद से किन्हीं में बोलते हैं तो किसी में नहीं। मेरी दृष्टि से यह परम्परागत सामाचारी भेद है इसलिए जिस समुदाय का जो नियम हो वैसा कर लेने में कोई आपत्ति नहीं है। शंका- पांचवाँ कायोत्सर्ग आवश्यक क्यों करते हैं? समाधान- यह आवश्यक आत्म सत्ता पर लगे हुए अतिचार रूपी घाव के ऊपर मलम लगाने जैसा है। इसके द्वारा प्रतिक्रमण से भी अशुद्ध रह गये सूक्ष्म अतिचारों का विशुद्धिकरण होता है तथा कील रूप दोषों का आंतरिक अंश भी समाप्त हो जाता है। कायोत्सर्ग आवश्यक के द्वारा चारित्र, दर्शन और
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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