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प्रतिक्रमण विधियों के प्रयोजन एवं शंका-समाधान ...173 शंका- द्वादशावर्त वन्दन करते समय साधु-साध्वी मुखवस्त्रिका को बायें घुटने पर रखते हैं, खरतरगच्छ परम्परा के श्रावक-श्राविकाएँ मुखवस्त्रिका के दोनों पाट खोलकर उसे चरवले की फलियों पर रखते हैं तथा तपागच्छ आदि परम्परावर्ती गृहस्थजन मुँहपत्ति को बिना खोले ही चरवला पर रखते हैं, यह अन्तर क्यों?
समाधान- गुरु चरणों की कल्पना करते हुए द्वादशावर्त वन्दन किया जाता है। साधु-साध्वी रजोहरण की डंडी पर चरणयुगल की कल्पना करते हैं जबकि गृहस्थ मुखवस्त्रिका पर गुरु चरणों की कल्पना करता है। उसमें भी खरतरगच्छ परम्परा में मुँहपत्ति खुला रखने का जो विधान है उसका हेतु यह है कि मुँहपत्ति के दोनों हिस्सों में युगल चरण की कल्पना की जाती है तथा तपागच्छ में मुँहपत्ति खोलकर नहीं रखते, यह परम्परागत सामाचारी समझना चाहिए।
शंका- श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य आदि पदस्थ साधु-साध्वियों को द्वादश आवर्त्तपूर्वक वन्दन किया जाता है तो यहाँ 'आवर्त' का अभिप्राय क्या है?
समाधान- जिस प्रकार वैदिक मन्त्रों में स्वर और हस्त संचालन का ध्यान रखा जाता है उसी प्रकार इस वंदन पाठ में भी आवर्त के रूप में स्वर एवं चरण स्पर्श के लिए की जाने वाली हस्त संचालन क्रिया के सम्बन्ध में लक्ष्य दिया गया है। स्वर के माध्यम से वाणी में एक विशेष प्रकार का ओज एवं माधुर्य पैदा हो जाता है जो अन्त:करण पर अद्भुत प्रभाव डालता है।
आवर्त के सम्बन्ध में विशेष यह है कि जिस प्रकार वर और कन्या अग्नि की प्रदक्षिणा करने के बाद पारस्परिक कर्तव्य-निर्वाह के लिए आबद्ध हो जाते हैं उसी प्रकार आवर्त क्रिया गुरु और शिष्य को एक दूसरे के प्रति कर्त्तव्य-बंधन में बाँध देती है। आवर्तन करते समय शिष्य गुरुजनों के चरण कमलों का स्पर्श करने के बाद अंजलिबद्ध दोनों हाथों को अपने मस्तक पर लगाता है। इसका अभिप्राय है कि वह गुरुदेव की आज्ञाओं को सदैव मस्तक पर वहन करने के लिए कृतप्रतिज्ञ है। यही आवर्त का मूल हार्द है।
शंका- वंदित्तु सूत्र में विस्तार से अतिचारों का मिच्छामि दुक्कडं दे दिया जाता है। उसके बाद तुरन्त अब्भुट्ठिओमिसूत्र क्यों?