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172... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
गुरु से साढ़े तीन हाथ दूर रहने पर हाथ-पैर के स्पर्शादि द्वारा एवं थूकादि के द्वारा होने वाली आशातनाओं से भी बचाव हो जाता है। ऐसे कई कारणों से गुरु अवग्रह का पालन करना चाहिए।
शंका- द्वादशावर्त्त वन्दन करते समय रजोहरण या मुहपत्ति पर गुरु चरणों की स्थापना की जाती है, यदि गुरु प्रत्यक्ष में हो तो क्या करना चाहिए?
समाधान- गुरु प्रत्यक्ष में उपस्थित हों और सभी लोग गुरु चरण का स्पर्श करने आएं तो एक-दूसरे में पहले चरण स्पर्श करने की होड़ लग सकती है। इससे अनुशासन भी खंडित होता है और समूह में ऐसा करने पर तो पूर्ण व्यवस्था ही भंग हो जाती है । गुरु साधनारत हो तो चरण स्पर्श करने से उनकी साधना में विघ्न आ सकता है। अधिक समुदाय में विवेक न रखा जाए तो गुरु की पीड़ा का कारण भी बन सकता है। अतः गुरु चरणों का स्पर्श न करके मुँहपत्ति या रजोहरण में तद्रूप स्थापना ही करनी चाहिए।
शंका- द्वादशावर्त्त वन्दन उत्कटासन मुद्रा में ही क्यों ?
समाधान- यह वंदन करते समय गुरु चरणों को स्पर्श करने की अभिव्यक्ति कई बार की जाती है जो खड़े होकर या पालथी में बैठकर सम्भव नहीं है। दूसरे, गुरु के समक्ष बैठने का यह मुख्य आसन है। इसी कारण वाचना, स्वाध्याय आदि विधियाँ भी उभड़क आसन में ही की जाती हैं, पालथी लगाकर बैठना अपवाद मार्ग है ।
शंका- द्वादशावर्त्त वन्दन क्रमशः दो बार ही क्यों किया जाता है ? समाधान- जैसे राजसेवक राजा की आज्ञा प्राप्त करने से पूर्व नमस्कार करके उनके समीप खड़ा रहता है। उसके बाद राजा की आज्ञा को शिरोधार्य करने से पहले पुनः नमस्कार करके जाता है इसी प्रकार गुरु आज्ञा को सुनने के लिए पहला वंदन एवं दूसरा वंदन गुरु आज्ञा को धारण करने के लिए किया जाता है।
वंदनार्थी पहली बार वन्दन करते हुए 'मे मिउग्गहं' कहकर गुरु के साढ़े तीन हाथ के अवग्रह में प्रवेश कर तथा आधा वंदन करने के पश्चात ‘आवस्सियाए पडिक्कमामि' कहते हुए अवग्रह से बाहर हो जाता है ।
यहाँ शिष्य गुर्वाज्ञा प्राप्त कर पहली बार में अवग्रह से बाहर हुआ । उसके बाद दूसरी बार में वंदन करते समय 'आवस्सियाए' शब्द न बोलते हुए अवग्रह में ही स्थित रहकर वन्दन पूर्ण होने के बाद आज्ञा को अमल करने के रूप में प्रत्याख्यान या आलोचना करता है ।