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प्रतिक्रमण विधियों के प्रयोजन एवं शंका-समाधान
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होता है तथा चौथा कायोत्सर्ग सम्यग्दृष्टि देवों के स्मरण रूप में करते हैं, क्योंकि उनके सहयोग से मानसिक समाधि प्राप्त होती है और अनिष्टकारी संभावनाएँ समाप्त हो जाती है।
शंका- नमोऽस्तु वर्धमानाय' अथवा 'संसार दावानल' की स्तुति उच्च स्वर से क्यों बोलते हैं?
समाधान- इसका मुख्य कारण यह है कि भगवान महावीर द्वारा स्थापित शासन को पाकर छह आवश्यक जैसी महान् योग साधना प्राप्त हुई है, उसकी कृतज्ञता के रूप में प्रभु की स्तुति की जाती है तथा दुनियाँ के किसी भी धर्म में षडावश्यक जैसा अद्भुत योग नहीं है जो मुझे प्राप्त हुआ है उस हर्ष की अभिव्यक्ति करने के उद्देश्य से यह स्तुतियाँ उच्च स्वर में बोलते हैं।
शंका- देववंदन करते समय प्रथम और अन्तिम स्तुति से पहले ‘नमोऽर्हत्' क्यों?
समाधान- देववन्दन करते वक्त प्रथम और अन्तिम स्तुति से पूर्व 'नमोऽर्हत्' आदर एवं सम्मान भाव का सूचक है । जिस प्रकार कोई सेवक या दूत राजा के समीप आते समय और लौटते समय दोनों बार प्रणाम करता है । यही तथ्य देववन्दन के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए ।
शंका- देववन्दन के पश्चात पुनः नमुत्थुणं सूत्र क्यों बोलते हैं ? समाधान- देववन्दन के तुरन्त बाद छह आवश्यक रूप प्रतिक्रमण प्रारम्भ करते हैं। इस क्रिया में भावधारा जुड़ी रहे तद्हेतु पुनर्मंगल के रूप में यह सूत्र बोला जाता है। इससे परमात्मा की स्तुति एवं उन्हें वंदन होता है।
शंका- दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण की स्थापना के पूर्व चार खमासमण देने चाहिए या पाँच ?
समाधान- प्रतिक्रमण हेतु गर्भ (पृ. 4) में पाँच खमासमण का उल्लेख है। पाँचवें खमासमण में 'समस्त श्रावकों को वन्दूं' ऐसा कहने का निर्देश है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक की प्रचलित अधिकांश परम्पराओं में चार और कुछ में पाँच खमासमण भी दिये जाते हैं।
शंका- प्रतिक्रमण स्थापना के पूर्व दिए जाने वाले चार खमासमणों में आचार्य आदि गुरु तत्त्व को ही वन्दन करते हैं अरिहंत एवं सिद्ध रूप देवतत्त्व को क्यों नहीं?
समाधान- राजा का मंत्री प्रधान होता है। जैसे राजा के प्रधान का बहुमान