SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 168... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना छूट रखकर शेष तीन आहार का त्याग कर देना चाहिए। इससे प्रत्याख्यान का अधिक लाभ मिलता है। फिर पानी का भी त्याग कर देने के लिए शाम को पाणाहार का प्रत्याख्यान करना चाहिए। • यदि किसी गृहस्थ को तिविहार का प्रत्याख्यान नहीं आता हो तो तीन नवकार मन्त्र गिनकर दूसरे दिन के सूर्योदय तक कुछ भी खाना-पीना नहीं है ऐसा संकल्प करके उठे। इससे तिविहार प्रत्याख्यान का लाभ मिल जाता है। दैवसिक प्रतिक्रमण संबंधी विशेष स्पष्टीकरण ___ शंका- कायोत्सर्ग और स्तुति अमुक-अमुक सूत्रों के बाद ही क्यों? सूत्रों के पूर्व क्यों नहीं? समाधान- पहली स्तुति का कायोत्सर्ग परमात्मा का चैत्यवन्दन-स्तवन करके करते हैं क्योंकि कायोत्सर्ग से हजारों भक्तों द्वारा किए जाने वाले वन्दनपूजन-सत्कार-सम्मान की अनुमोदना का लाभ प्राप्त करना है और उस लाभ की अनुभूति पहले स्वयं वन्दन करके ही प्राप्त की जा सकती है। दूसरी स्तुति का कायोत्सर्ग समस्त लोक के अरिहंत चैत्यों को भक्तों द्वारा की जाने वाली वंदना, अर्चना आदि की अनुमोदना लाभ के उद्देश्य से करते हैं। तीसरी स्तुति का कायोत्सर्ग अरिहंत परमात्मा के पश्चात उपकारक श्रुतआगम के प्रति किया जाने वाला वन्दन-पूजन आदि की अनुमोदना के निमित्त करते हैं। चौथी स्तुति का कायोत्सर्ग शान्ति समाधि के प्रेरक सम्यग्दृष्टि देवों के स्मरण के अर्थ में करते हैं। शंका- दैवसिक प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में और रात्रिक प्रतिक्रमण के अन्त में चार स्तुतियों द्वारा देववन्दन करते समय एक-एक नवकार मन्त्र का कायोत्सर्ग किसलिए किया जाता है? समाधान- सर्वप्रथम एक नमस्कार मन्त्र का कायोत्सर्ग जिस तीर्थंकर प्रभु की स्तुति बोलनी है ऐसे अरिहंत परमात्मा की आराधना निमित्त किया जाता है, क्योंकि अरिहंत का हमारे जीवन में सबसे अधिक उपकार है। दूसरा कायोत्सर्ग शाश्वत-अशाश्वत बिंब के रूप में प्रतिष्ठित सभी तीर्थंकरों एवं सिद्धात्माओं की आराधना निमित्त करते हैं, क्योंकि उन सभी के वन्दन-पूजन से आत्मा की परिणति अत्यन्त निर्मल बनती है। तीसरा कायोत्सर्ग श्रुत की अनुमोदना के उद्देश्य से करते हैं इससे जिनवाणी एवं आगम ग्रन्थों के प्रति बहुमान उत्पन्न
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy