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प्रतिक्रमण विधियों के प्रयोजन एवं शंका-समाधान ... 167
जाने वाली विधि परम्परागत सामाचारी के अनुसार समझनी चाहिए। प्राचीन ग्रन्थों में इन क्रियाओं का उल्लेख नहीं है ।
प्रतिक्रमण के अन्त में चउक्कसाय का चैत्यवन्दन क्यों किया जाता है?
इस चैत्यवन्दन का मुख्य कारण यह है कि साधु-साध्वी की तरह श्रावकश्राविकाओं को भी एक अहोरात्र में सात बार चैत्यवंदन करना चाहिए। इनमें अन्तिम चैत्यवन्दन रात्रि में शयन करने से पूर्व करने का निर्देश है वह प्रमादवश छूट न जाये, इसलिए प्रतिक्रमण के अंत में कर लिया जाता है। इस प्रकार गृहस्थ के लिए प्रात:कालीन प्रतिक्रमण के प्रारंभ में बोला जाने वाला 'जयउ सामिय’ अथवा ‘जगचिंतामणि' का पहला, प्रातः कालीन प्रभु दर्शन का दूसरा, भोजन करने से पूर्व तीसरा, मध्याह्न और सायंकालीन प्रभु दर्शन का चौथा - पांचवाँ, दैवसिक प्रतिक्रमण के प्रारम्भ का छठा और दैवसिक प्रतिक्रमण के अन्त का सातवाँ - ऐसे सात चैत्यवंदन का नियम है। इस सामाचारी के अनुकरणार्थ चउक्कसाय का चैत्यवन्दन करते हैं। साधु एवं पौषधधारी गृहस्थ सातवाँ चैत्यवन्दन संथारा पौरुषी पढ़ते समय करते हैं।
प्रत्याख्यान के विषय में कुछ ध्यातव्य बिन्दू
शंका- दैवसिक प्रतिक्रमण शुरू करने से पूर्व दिवसचरिम प्रत्याख्यान ग्रहण करते हैं उस समय चौविहार उपवास करने वाले मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन और द्वादशावर्त्त वन्दन नहीं करते हैं ऐसा क्यों ?
समाधान- इसका हेतु यह है कि चौविहार उपवास करने वाला व्यक्ति प्रात:काल ही चारों आहारों का त्याग कर देता है अतः उसे सन्ध्या में पुनः से प्रत्याख्यान लेने की आवश्यकता नहीं रहती । इस कारण मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन और वन्दन दोनों जरूरी नहीं है क्योंकि उक्त दोनों क्रियाएँ नया प्रत्याख्यान लेने के उद्देश्य से ही होती है।
• तिविहार उपवास करने वाले के लिए केवल मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन का नियम है, द्वादशावर्त्त वन्दन करने का नहीं। इसका हेतु परम्परागत सामाचारी ही समझना चाहिए।
• सन्ध्या को चौविहार, पाणाहार, दुविहार आदि प्रत्याख्यान करने वालों के लिए मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन और वन्दन करने का प्रयोजन स्पष्ट ही है ।
• आयंबिल, नीवि, एकासणा, बिआसणा आदि करने वालों को आहार करने के बाद तिविहार का प्रत्याख्यान कर लेना चाहिए अर्थात पानी पीने की