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160... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना आत्मसत्ता में तीव्र कषाय हो तो उसका चारित्र सेलड़ी के फूल जैसा निष्फल गिना जाता है इसलिए 'आयरिय उवज्झाय सूत्र' द्वारा सकल संघ के साथ रहे हुए कषाय भावों की क्षमा मांगकर आत्मा को कषाय मुक्त किया जाता है। कायोत्सर्ग की सिद्धि के लिए कषाय जनित परिणामों की शांति आवश्यक है। यह सूत्र बोलते वक्त करबद्ध अंजलि को मस्तक पर रखते हैं जो साधक के अति नम्र भाव की सूचक है।
पांचवाँ कायोत्सर्ग आवश्यक- तदनन्तर करेमि भंते सूत्र, इच्छामि ठामि सूत्र, तस्स उत्तरी सूत्र एवं अन्नत्थसूत्र बोलकर चारित्राचार में लगे दोषों की शृद्धि के लिए दो लोगस्ससूत्र का कायोत्सर्ग किया जाता है।
यहाँ कायोत्सर्ग करने से पहले जो सूत्र बोले जाते हैं उनके अर्थ का विचार करने से चारित्र का शुद्ध स्वरूप समझ आता है तथा उसमें कौनसे व्रतादि अतिचार रूप हैं उनका स्पष्ट बोध होता है। उसके पश्चात दर्शनाचार की शद्धि निमित्त लोगस्ससूत्र, सव्वलोए अरिहंत चेईयाणं सूत्र एवं अन्नत्थसूत्र कहकर एक लोगस्स का कायोत्सर्ग करते हैं।
तत्पश्चात ज्ञानाचार की शुद्धि निमित्त पुक्खरवरदी सूत्र एवं अन्नत्थ सूत्र बोलकर एक लोगस्स का कायोत्सर्ग किया जाता है।
प्रस्तुत विधि क्रम में एक प्रश्न होता है कि प्रतिक्रमण में करेमि भंते सूत्र अनेक बार क्यों बोला जाता है? आवश्यकनियुक्ति (1696) में कहा गया है कि
समभावंमि ठिअप्या, उस्सग्गं करिअ तो अ पडिक्कमइ ।
एमेव समभावे, ठिअस्स तइअंपि उस्सग्गे।। __ अर्थात सभी अनुष्ठान समभाव पूर्वक करने से सफल होते हैं इसलिए समत्व की प्राप्ति, स्थिरता और वृद्धि के लिए प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में (प्रतिक्रमण स्थापना के पश्चात), मध्य में (वंदित्तुसूत्र बोलने के पहले) और अन्त में (आयरिय उवज्झाय सूत्र के बाद) करेमि भंते सूत्र बोला जाता है। इस प्रकार करेमि भंते सूत्र तीन बार उच्चरित किया जाता है। किन्तु इसमें पुनरुक्ति दोष नहीं है। आवश्यकनियुक्ति में कहा भी गया है कि
सज्झाय झाण तवोसहेषु, उवएस थुइप्पयाणेसु । संतगुण कित्तणेसु, न हुति पुनरुत्त दोसाउं ।।16-97।।