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प्रतिक्रमण विधियों के प्रयोजन एवं शंका-समाधान ...161 चारित्राचार की शुद्धि हेतु दो लोगस्स का तथा दर्शनाचार एवं ज्ञानाचार की शुद्धि हेतु एक-एक लोगस्स का कायोत्सर्ग क्यों?
दिन के दरम्यान समिति-गुप्ति आदि के भंग से चारित्राचार में अधिक दोष लगते हैं इसलिए तत्सम्बन्धी पापों से निवृत्ति के लिए दो लोगस्स का कायोत्सर्ग करते हैं जबकि दर्शनाचार और ज्ञानाचार में अल्प विराधना की सम्भावना होने से उसके लिए एक-एक लोगस्स का कायोत्सर्ग कहा गया है।
तदनन्तर सभी आचारों का निरतिचार पालन करने से उत्कृष्ट फल प्राप्त करने वाले सर्व सिद्धों को वन्दन किया जाता है। तनिमित्त सिद्धाणं बुद्धाणं सूत्र बोलते हैं। श्रुत देवता और क्षेत्र देवता का कायोत्सर्ग क्यों?
प्रतिक्रमण विधि में दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र की शुद्धि करने के अनन्तर श्रुत देवता एवं क्षेत्र देवता की आराधना निमित्त एक-एक नवकार मन्त्र का कायोत्सर्ग और उनकी स्तुति बोली जाती है।
आत्मशुद्धि के लिए धर्म का आलम्बन जरूरी है। वह धर्म दो प्रकार का कहा गया है- चारित्रधर्म और श्रुतधर्म। चारित्र धर्म संयम की आराधना रूप है
और श्रुतधर्म सम्यग्ज्ञान की आराधना स्वरूप है। यह सम्यकज्ञान सर्वज्ञों द्वारा उपदिष्ट एवं गणधरों द्वारा गम्फित आगमवाणी के रूप में उपलब्ध है। श्रत की उपासना मनोशुद्धि में हेतुभूत होने से सदैव करणीय है अतः श्रुतभक्ति के उद्देश्य से श्रुतदेवता की आराधना की जाती है। दूसरा कारण यह है कि सभी धर्मानुष्ठानों में श्रुतज्ञान हेतुभूत है उस श्रुत की वृद्धि के लिए श्रुतदेवता की आराधना करते हैं। तीसरा तथ्य यह है कि देवी-देवता अल्पभक्ति या द्रव्य अर्पण से प्रसन्न हो जाते हैं इसलिए एक नमस्कार मन्त्र का कायोत्सर्ग करते हैं। इस कायोत्सर्ग में श्रुतदेवता का स्मरण करने से श्रुत ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है और उससे ज्ञान प्राप्ति होती है।
श्रुतदेवता की आराधना का एक हेतु यह भी है कि श्रुत के माध्यम से सम्यकदर्शन-सम्यकज्ञान-सम्यकचारित्र रूप मार्ग का बोध होता है तथा श्रुत द्वारा ही इन आत्मगुणों पर लगे अतिचारों की शुद्धि हेतु प्रतिक्रमण जैसे महत अनुष्ठान की प्राप्ति होती है।
प्रत्येक क्षेत्र के भिन्न-भिन्न अधिष्ठायक देव होते हैं। उन्हें तुष्ट रखने से वे स्वयं के क्षेत्र में रहे हुए साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविकाओं के अनिष्ट उपद्रवों