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________________ प्रतिक्रमण विधियों के प्रयोजन एवं शंका समाधान ...157 जैनाचार में चारित्रधर्म का मुख्य स्थान है, उसमें अहिंसा का पालन करना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। वन्दन करते समय शरीर के जो-जो भाग मुड़ते हो उन्हें संडासा कहते हैं। उन अंगोपांगों को मोड़ते वक्त जीव हिंसा न हो, इस दृष्टि से प्रतिलेखित मुखवस्त्रिका द्वारा संडासक स्थानों की प्रमार्जना की जाती है और वांदणा देते समय रजोहरण या चरवला से सत्रह संडासकों (शरीर के मुड़ने योग्य स्थानों) का यथोचित प्रमार्जन किया जाता है। चौथा प्रतिक्रमण आवश्यक - गुरु को द्वादशावर्त्त वन्दन करने के पश्चात चौथे आवश्यक में प्रवेश करते हैं जिसमें मुख्य रूप से पापों की आलोचना और प्रायश्चित्त किया जाता है। जैन परम्परा में प्रत्येक धर्मक्रिया गुरु के समक्ष उनकी स्वीकृति पूर्वक की जाती है। इसलिए यहाँ दिवस सम्बन्धी पापों की आलोचना करने हेतु शरीर और मस्तक झुकाकर 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसियं आलोउं ? " ऐसा गुरु महाराज से आदेश मांगते हैं और उसके बाद पूर्व कायोत्सर्ग में अवधारित (याद किए गए ) अतिचारों की आलोचना करने के उद्देश्य से 'जो मे देवसिओ सूत्र' बोला जाता है। गणधर रचित इस सूत्र के द्वारा समस्त पापों का कथन होता है। फिर इसी क्रम में सात लाख, अठारह पाप स्थान, ज्ञान - दर्शन - चारित्र का पाठ बोलते हैं। इन सूत्रों के द्वारा भी दिवस सम्बन्धी दोषों की आलोचना की जाती है। उसके बाद 'सव्वस्सवि सूत्र' कहा जाता है। इस सूत्र के मध्य 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन्' इस वाक्य से गुरु के सम्मुख पापों का प्रायश्चित्त मांगते हैं तब गुरु 'पडिक्कमेह' शब्द से प्रतिक्रमण नामक प्रायश्चित्त की आज्ञा देते हैं तब प्रतिक्रमण करने वाले आराधक 'तस्स मिच्छामि दुक्कडं' शब्द का उच्चारण करते हैं। इस अन्तिम वाक्य का अर्थ यह है कि 'मैं भी प्रतिक्रमण करने की इच्छा करता हूँ इसलिए कृत पापों का मिच्छामि दुक्कडं देता हूँ।' इस प्रकार स्वकृत पापों का प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त करने के लिए गुरु से आज्ञा मांगते हैं और गुरु स्वीकृति देते हैं। यहाँ गुर्वानुमति पूर्वक प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त किया जाता है। यदि साधक 'इच्छं तस्स मिच्छामि दुक्कडं' बोलना भूल जाए तो प्रतिक्रमण के लिए उपस्थित होने पर भी उनके पापों का प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त नहीं होता है। इसलिए ध्यानपूर्वक उक्त वाक्य बोलना ही चाहिए। • इस प्रकार संक्षेप में प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त करने के बाद प्रत्येक पापों का
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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