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प्रतिक्रमण विधियों के प्रयोजन एवं शंका-समाधान
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क्योंकि सभी धर्मानुष्ठान अरिहंत परमात्मा एवं गुरु के वंदन पूर्वक सफल होते हैं। प्रतिक्रमण पापों के प्रायश्चित्त का एक महान शुभ कार्य है और मोक्ष का कारण है। अतः प्रतिक्रमण मंगल के बिना निर्विघ्न पूर्ण नहीं हो सकता, इस कारण मंगल अवश्य करना चाहिए। सृष्टि जगत में मंगल अनेक प्रकार के हैं किन्तु देव- गुरु को वंदन करने के समान दूसरा कोई मंगल नहीं है। इसलिए प्रथम शक्रस्तव पूर्वक चार स्तुतियों के द्वारा देववंदन करते हैं।
गुरुवन्दन - देववन्दन के पश्चात प्रतिक्रमण जैसी विशिष्ट आराधना निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हो उस हेतु गुरु को वन्दन करना चाहिए । अतएव भगवान-आचार्य-उपाध्याय - सर्वसाधु इन चारों के नामोच्चारणपूर्वक खमासमण देकर गुरुओं को वन्दन किया जाता है।
प्रतिक्रमण स्थापना - प्रतिक्रमण की निर्विघ्न सम्पन्नता के लिए देव- गुरु के वन्दन रूप मंगल करने के पश्चात प्रतिक्रमण स्थापन की क्रिया होती है। प्रतिक्रमण में मन, वचन और काया से स्थिर होने के लिए 'इच्छा. देवसिय पडिक्कमणे ठाउं ?' इस पद से प्रतिक्रमण की स्थापना करने का आदेश मांगा जाता है। अथवा प्रतिक्रमण के अनुष्ठान हेतु प्रणिधान किया जाता है क्योंकि प्रणिधान युक्त अनुष्ठान सफल और सुन्दर होता है। गुर्वाज्ञा प्राप्त होने के पश्चात दाहिना हाथ एवं मस्तक चरवले पर स्थापित कर प्रतिक्रमण का बीज रूप 'सव्वस्स वि देवसिअ सूत्र' बोला जाता है। • यहाँ दायें हाथ को चरवले पर स्थापित करते समय 'गुरु के चरणों का स्पर्श कर रहा हूँ' ऐसी भावना रखनी चाहिए तथा मस्तक झुकाते हुए 'पाप भार से अवनत हो रहा हूँ' ऐसा चिंतन करना चाहिए।
• इस सूत्र के द्वारा दिवस सम्बन्धी सर्व दुष्कृतों का मिच्छामि दुक्कडं दिया जाता है। इसलिए यह सूत्र प्रतिक्रमण का बीजक सूत्र माना जाता है। जैसे सम्पूर्ण वृक्ष का आकार उसके बीज में निहित रहता है वैसे ही सम्पूर्ण प्रतिक्रमण, इस सूत्र में समाविष्ट है।
प्रथम सामायिक आवश्यक - प्रतिक्रमण स्थापना के पश्चात मूल रूप से छह आवश्यक रूप प्रतिक्रमण का प्रारम्भ होता है इसलिए प्रतिक्रमण की मुख्य शुरूआत यहाँ से होती है । विरतिभाव में की गई सभी क्रियाएँ शुभ होती है, अतः प्रतिक्रमण प्रारम्भ करने से पहले प्रथम आवश्यक के रूप में यहाँ सामायिकसूत्र ‘करेमिभंते सूत्र' बोला जाता है।