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146... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
जैन-परम्परा में आचरित दोषों के प्रायश्चित्त के लिए गुरु अथवा गीतार्थ मुनि से निवेदन (आलोचन) तो किया जाता है, लेकिन संघ के समक्ष अशुभाचरण को प्रकट करने की परम्परा उसमें नहीं है। सम्भवत: संघ के समक्ष दोषों को प्रकट करने से दोषी भिक्षु या भिक्षुणी की बदनामी या अवहेलना की सम्भावना को ध्यान में रखकर ही ऐसा विधान किया गया प्रतीत होता है। इतना ही नहीं, जैन परम्परा संघ की अपेक्षा किसी योग्य साधक के समक्ष ही पाप आलोचन की अनुमति देती है।62 जैन साहित्य में आलोचना कर्ता एवं आलोचना दाता किन गुणों से युक्त हो, इसका निर्देश भी किया गया है। इसका तात्पर्य है कि विशिष्ट गुण सम्पन्न गुरु के समक्ष ही आलोचना की जा सकती है और विशिष्ट गुणी ही आलोचना कर सकता है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि बौद्ध धर्म में प्रकारान्तर से प्रतिक्रमण की व्यवस्था सजीव है। वैदिक परम्परा और प्रतिक्रमण
वैदिक परम्परा में प्रतिक्रमण के समान सन्ध्या कर्म का विधान है, जो प्रातः एवं सायं दोनों समय किया जाता है। सन्ध्या का सामान्य अर्थ है सम् - उत्तम प्रकार से, ध्यै - ध्यान करना यानी विशिष्ट प्रकार से इष्ट देव का करना। द्वितीय अर्थ के अनुसार दिन और रात्रि की सन्धि-वेला में किया जाने वाला धार्मिक अनुष्ठान सन्ध्या कर्म कहलाता है। इस निर्वचन के अनुसार संध्या कृत्य में यजुर्वेद के मंत्र (विष्णुमंत्र) द्वारा शरीर पर जल छिड़क कर उसे पवित्र बनाने का उपक्रम किया जाता है। फिर पृथ्वी माता की स्तुति से अभिमंत्रित कर जलाच्छोटन द्वारा आसन को पवित्र किया जाता है। उसके पश्चात सृष्टि के उत्पत्तिक्रम पर विचार किया जाता है। इस समय सूर्य को जल के द्वारा तीन बार अर्घ्य दिया जाता है। प्रथम अर्घ्य में तीन राक्षसों की सवारी का, दूसरे में राक्षसों के शस्त्रों का और तीसरे में राक्षसों के नाश की कल्पना की जाती है। तदनन्तर गायत्री मन्त्र पढ़ा जाता है। इन स्तुतियों में जल छिड़कने की भी प्रथा है।63
आदरणीय डॉ. सागरमल जैन के अनुसार वैदिक परम्परा के सन्ध्या कर्म में एक मन्त्र उस प्रकार का बोला जाता है, जो जैन प्रतिक्रमण विधि का संक्षिप्त रूप मालूम होता है। उस मन्त्र का उच्चारण करते हुए साधक यह संकल्प करता है कि मैं आचरित पापों के क्षय के लिए परमेश्वर के प्रति इस उपासना को