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प्रतिक्रमण की मौलिक विधियाँ एवं तुलनात्मक समीक्षा ...145 अनुचिन्तन करते हैं कि विगत वर्षावास में क्या-क्या अपराध हुए? गृहीत नियम किस-किस तरह से खंडित हुए? किन परिस्थितियों में आचरणीय का सेवन किया? आदि। इस समय स्वयं द्वारा दृष्ट, श्रुत, परिशंकित एवं परिज्ञात दुष्कृत्यों का विशोधन किया जाता है।60 __सर्वप्रथम वरिष्ठ भिक्षु अपने संघ में सूचना देता है कि 'आज प्रवारणा है।' फिर अपने कंधे पर उत्तरासंग (दुपट्टा) को धारण कर एवं कुर्कुट आसन में बैठकर बद्धांजलि पूर्वक संघ से निवेदन करता है कि- 'मैं दुष्ट, श्रुत एवं परिशंकित अपराधों का पश्चात्ताप पूर्वक आलोचन कर रहा हूँ, संघ मेरे दुष्कृत्यों को बताए, मैं उनका स्पष्टीकरण करूंगा।' इस बात को तीन बार दोहराया जाता है। तत्पश्चात उससे कनिष्ठ भिक्षु, फिर क्रमश: सभी भिक्षु अपने कृत पापों को प्रकट करते हैं। इस प्रकार प्रवारणा से पाक्षिक शुद्धि की जाती है। इस मत में यही पाक्षिक प्रतिक्रमण कहलाता है।61
सामान्यत: प्रवारणा कार्तिक मास की चतुर्दशी या पर्णिमा के दिन करते हैं इस विधि-प्रक्रिया में पूर्वकाल में कम से कम पाँच भिक्षुओं का एकत्र होना आवश्यक माना गया था। फिर कालक्रम से चार, तीन, दो एवं अब एक भिक्षु भी प्रवारणा कर सकता है- ऐसी अनुमति दी गई है। इनके नियमानुसार विशेष स्थिति में अपराधों का प्रकटन (प्रवारणा) अति संक्षेप में और अन्य समय में भी की जा सकती है, किन्तु यह विधान आपवादिक एवं परवर्ती है। __ बौद्ध आचार-संहिता में प्रवारणा के लिए यह भी आवश्यक माना गया है कि वह संघ के सानिध्य में ही होनी चाहिए। जैन परम्परा में भी वर्तमान में सामूहिक प्रतिक्रमण की प्रणाली देखने में आती है।
आदरणीय डॉ. सागरमल जैन ने अपने अमूल्य शोध ग्रन्थ में प्रस्तुत विषय पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं में प्रतिक्रमण के समय पर आचार नियमों का पाठ किया जाता है और नियम भंग या दोषाचरण के लिए पश्चात्ताप प्रकट किया जाता है। बौद्ध-परम्परा की विशेषता यह है कि उसमें प्रवारणा के समय वरिष्ठ भिक्षु आचरण के नियमों का पाठ करता है और प्रत्येक नियम के पाठ के पश्चात उपस्थित भिक्षुओं से इस बात की अपेक्षा करता है कि जिस भिक्षु ने किसी भी नियम का भंग किया हो वह संघ के समक्ष उसे प्रकट कर दें।