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144... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
बौद्ध मान्यतानुसार प्रतिकर्म का अर्थ है- पूर्वकृत दोषों का पुनरावर्तन न करना, असत्कर्म नहीं करना अथवा आत्म स्वभाव के प्रतिकूल आचरण नहीं करना।
पापदेशना का अर्थ है- स्वयं के द्वारा किये गये दुराचरणों की आलोचना करना। बुद्धवचन है कि जीवन की निर्मलता एवं दोष रहितता के लिए पाप देशना आवश्यक है। पापमय आचरण का पश्चात्ताप पूर्वक प्रगटन करने से व्यक्ति पाप के भार से हल्का हो जाता है और खुला हुआ यानी आत्म भावों से पृथक् हुआ पाप कभी चिपकता नहीं है।57 बौद्ध संघाचार्य शान्तिदेव ने पापदेशना के रूप में दिन और रात्रि में तीन-तीन बार प्रतिक्रमण का निर्देश किया है। वे कहते हैं कि तीन बार रात्रि में और तीन बार दिन में त्रिस्कन्ध अर्थात पापदेशना, पुण्यानुमोदना और बोधि परिणामना की आवृत्ति करनी चाहिए। इससे अनजान में हुई आपत्तियों का उससे शमन हो जाता हैं।58
प्रवारणा का शाब्दिक अर्थ है- कृत पापों का विशेष प्रकार से निषेध करना अथवा सर्वथा प्रकार से दूर करना। बोधिचर्यावतार में पापदेशना के प्रकृति सावद्य और प्रज्ञप्ति सावध ये दो प्रकार बताये गये हैं। प्रकृतिसावध वह है, जो स्वभाव से ही निन्दनीय है, जैसे हिंसा, असत्य, चोरी आदि और प्रज्ञप्ति सावध है- व्रत ग्रहण करने के पश्चात उसका भंग करना, जैसे- विकाल भोजन. अब्रह्म सेवन, अदत्तग्रहण, परिग्रह संचय आदि। बौद्ध-परम्परा में उक्त दोनों प्रकार के दुराचरणों का प्रतिक्रमण किया जाता है। जैन-परम्परा में भी प्रकृति सावद्य और प्रज्ञप्ति सावध का ही प्रतिक्रमण किया जाता है। डॉ. सागरमल जैन के चिन्तन प्रधान आलेख के अनुसार पच्चीस मिथ्यात्व, चौदह ज्ञानातिचार और अठारह पापस्थान का आचरण अथवा मूलगुणों का भंग करना प्रकृति सावध है, क्योंकि इनसे दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप साधना मार्ग का मूलोच्छेद होता है। गृहस्थ और श्रमण जीवन के गृहीत व्रतों में लगने वाले दोष या स्खलनाएँ प्रज्ञप्ति सावध है।59 ___ बौद्ध-दर्शन में प्रवारणा की तुलना जैनों के पाक्षिक प्रतिक्रमण से की गई है। प्रवारणा की विधि इस प्रकार है- वर्षावास के पश्चात भिक्षु-भिक्षुणी संघ एकत्रित होता है और सभी अपने कृत अतिचारों के सम्बन्ध में गहराई से