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प्रतिक्रमण की मौलिक विधियाँ एवं तुलनात्मक समीक्षा ...131 • संवत्सर (वर्षभर) में हुए अपराधों एवं भूलों से आत्मा को विशुद्ध करने हेतु एक तेला, तीन उपवास, छह आयंबिल, नौ नीवि, बारह एकासना, चौबीस बिआसना अथवा छह हजार गाथाओं का स्वाध्याय करें।
• तीन उपवास परिमाण जितना तप करने से वर्षभर में किये गये सामान्य पाप नष्ट हो जाते हैं।
• संबुद्धा खामणा करते वक्त नौ से अधिक साधु हों तो स्थापनाचार्य के सिवाय सात मुनियों से अब्भुट्ठिओमिसूत्र पूर्वक क्षमायाचना करनी चाहिए।
• संबुद्धा, प्रत्येक एवं समाप्ति खामणा करते समय अब्भुट्ठिओमि पाठ के प्रारम्भ में ‘बारहसण्हं मासाणं, चउवीसण्हं पक्खाणं, तीन सौ साठ राइ-दिवसाणं जं किंचि अपत्तिअं' कहे। यदि तेरह महीने होते हों तब ‘तेरसण्हं मासाणं, छब्बीसण्हं पक्खाणं, तीन सौ नब्बे राइदिवसाणं' कहना चाहिए।
विधिमार्गप्रपा के अनुसार संवत्सरी प्रतिक्रमण में भवन देवता का कायोत्सर्ग नहीं करना चाहिए और स्तुति भी नहीं बोलनी चाहिए। वर्तमान में यह सामाचारी नियम कुछ परम्पराओं में मान्य है तो किसी में नहीं भी। विधिप्रपाकार के मतानुसार साधु-साध्वियों को संवत्सरी प्रतिक्रमण के पश्चात ‘असज्झाय ओहडावणियं' का कायोत्सर्ग भी नहीं करना चाहिए। साथ ही पाक्षिक आदि तीनों पर्व दिनों में वर्धमान स्वामी (नमोऽस्तु वर्धमानाय) की तीनों स्तुतियाँ गुरु के द्वारा बोल दी जाए उसके पश्चात शेष सभी को पुन: बोलनी चाहिए।49
मण्डली स्थापना विधि प्रतिक्रमण पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख होकर करना चाहिए। यदि पूर्वाभिमुख प्रतिक्रमण कर रहे हों तो उस दिशा में वत्साकार मंडली करनी चाहिए अर्थात प्रतिक्रमण करने वाले आचार्य आदि को उस आकार में बैठना चाहिए। विधिमार्गप्रपा में वत्साकार मंडल रचना की विधि दर्शाते हुए कहा है कि
आयरिया इह पुरओ, दो पच्छा तिन्नि तयणु दो तत्तो ।
तेहिं पि पुणो इक्को, नवगण माणाइ मा रयणा ।। प्रतिक्रमण मंडली में आचार्य सबसे आगे बैठें, फिर आचार्य के पीछे दो साधु बैठे, उन दो साधुओं के पीछे तीन साधु बैठे, उन तीन के पीछे पुन: दो साधु और दो के पीछे पुनः एक साधु बैठे- इस प्रकार नौ गण (समूह) परिमाण की यह रचना होती है।