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प्रतिक्रमण की मौलिक विधियाँ एवं तुलनात्मक समीक्षा ...123 भगवन्! पक्खिय आलोउं?' गुरु-'आलोएह'। तदनु शिष्य ‘इच्छं' आलोएमि सूत्र कहें। फिर साधु एवं गृहस्थ अपने-अपने व्रतों से सम्बन्धित बृहद् पाक्षिक अतिचार बोलें।
• वर्तमान परम्परा में गुरु या ज्येष्ठ साधु अतिचार के अन्त में ‘एवं प्रकारे साधु के 140 अतिचार एवं श्रावक के 124 अतिचार में सूक्ष्म या बादर रूप से जो कोई अतिचार लगा हो तो मन-वचन-काया से मिच्छामि दुक्कडं' इतना कहते हैं।
• उसके बाद 'सव्वस्सवि पक्खिअ दुच्चिंतिय दुब्भासिअ दुच्चिट्ठिअ इच्छं, तस्स मिच्छामि दुक्कडं' कहे। इस पाठ के मध्य में शिष्य 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन!' कहकर पाक्षिक अतिचारों का प्रायश्चित्त मांगे। तब गुरु या वरिष्ठ श्रावक इस प्रकार कहें- 'एक उपवास, दो आयंबिल, तीन नीवि, चार एकासणा, आठ बिआसणा अथवा दो हजार सज्झाय करी पेठ पूरजो'। यदि तप कर लिया हो तो प्रतिक्रमण करने वाले ‘पइट्ठिओ' कहे, तप करना हो तो 'तहत्ति' कहें, यदि न करना हो तो मौन रहें।
• वर्तमान की खरतरगच्छ परम्परा में पाक्षिक तप की यह विधि समाप्ति खामणा के बाद की जाती है, किन्तु पाक्षिक अतिचार के बाद करना ही विधियुक्त है। साधुविधिप्रकाश में समाप्ति खामणा के बाद भी पाक्षिक तप देने का उल्लेख है इससे ज्ञात होता है कि अर्वाचीन परम्परा में संभवत: इस सामाचारी ग्रन्थ का अनुकरण किया जाता हो।33
प्रत्येक क्षमायाचना- पाक्षिक आलोचना ग्रहण करने के पश्चात स्थापनाचार्य को द्वादशावर्त वन्दन करें। उसके बाद खड़े होकर सर्वप्रथम गुरु 'इच्छा. संदि. भगवन! देवसियं आलोइयं पडिक्कंता पत्तेय खामणेणं अब्भुट्ठिओमि अब्भितर पक्खियं खामेऊ? इच्छं, खामेमि पक्खियं' फिर संबुद्धा खामणा की तरह ‘पनरसण्हं दिवसाणं से अब्भुट्ठिओमि सूत्र' तक पूरा पाठ बोलें। उसके बाद शिष्य भी रत्नाधिक साधुओं और श्रावकों से क्षमायाचना करें।
उसके बाद विधिमार्गप्रपा के अनुसार साधु-साध्वी परस्पर में ही सुखतप आदि पूछते हैं श्रावकों से नहीं।34
पाक्षिक सत्र श्रवण- तत्पश्चात स्थापनाचार्य को द्वादशावर्त वन्दन करें। उसके बाद गुरु खड़े होकर कहे-'भगवन्! देवसियं आलोइयं पडिक्कंतं पक्खियं