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112... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना गुरु दैवसिक अतिचारों का दो बार और अन्य साधु एक बार चिंतन करें, क्योंकि गुरु के गमनागमन आदि की प्रवृत्ति अधिक नहीं होती है इसलिए शेष मुनि दोषों का एक बार चिंतन करें उतने समय में गुरु दो बार स्मरण कर सकते हैं।
• गृहस्थ भी दिवसकृत अतिचारों का ही चिंतन करें। वर्तमान में अतिचार चिंतन के स्थान पर आठ नवकार या पंचाचार की आठ गाथाओं का स्मरण करने की भी प्रवृत्ति है।
'नमो अरिहंताणं' शब्द पूर्वक कायोत्सर्ग पूर्णकर प्रकट में लोगस्स सूत्र बोलें।
तीसरा आवश्यक- तदनन्तर संडाशक आदि स्थानों की प्रमार्जना करते हुए उत्कटासन में बैठकर एवं दोनों भुजाओं से शरीर का स्पर्श न करते हुए, गुरु वन्दन के लिए मुखवस्त्रिका और शरीर की 25-25 बोलों से प्रतिलेखना करें। फिर सुगुरुवंदन सूत्र पूर्वक दो बार द्वादश आवर्त पूर्वक वन्दन करें।
चौथा आवश्यक- उसके बाद वन्दारूवृत्ति आदि ग्रन्थों के अनुसार अवग्रह में ही स्थित होकर, शरीर को किंचित झुकाते हुए ‘इच्छा. संदिसह भगवन! देवसियं आलोउं? इच्छं' जो मे देवसियो सूत्र का उच्चारण करते हुए पूर्व कायोत्सर्ग में अवधारित दैवसिक अतिचारों की गुरु के समक्ष आलोचना करें।
• उसके पश्चात साधु-साध्वी 'ठाणे कमणे सूत्र' बोलें तथा गृहस्थ के लिए सात लाख, अठारह पापस्थान, ज्ञान दर्शन चारित्र आदि आलोचना सूत्र बोलने की परम्परा है। तदनु ‘सव्वस्सवि देवसिय' से 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन्' तक कहें। गुरु- ‘पडिक्कमेह' शब्द द्वारा प्रतिक्रमण रूप प्रायश्चित्त का आदेश दें।
• तत्पश्चात संडाशक स्थानों की प्रमार्जना पूर्वक दोनों पंजों के बल बैठते हुए दाहिने घुटने को ऊँचा करें तथा रजोहरण (चरवला) और मुखवस्त्रिका को दोनों हाथों से मुख के आगे धारण करते हुए शिष्य कहें- 'भगवन्! सूत्र कडं?' गुरु बोले- ‘कड्डेह'।
• उसके बाद साधु-साध्वी प्रचलित सामाचारी के अनुसार तीन बार नवकार, तीन बार करेमिभंते, चत्तारि मंगलं, इच्छामि ठामि, इच्छामि पडिक्कमिउं, पगामसिज्झाय इत्यादि सूत्र बोलें। यहाँ गृहस्थ तीन बार नवकार, तीन बार करेमिभंते एवं वंदित्तुसूत्र कहें।