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________________ 68... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना समय बेभान रहते हैं। हमें उस वक्त यह आभास ही नहीं होता कि हम कोई दोषपूर्ण प्रवृत्ति कर रहे हैं या हमारी वजह से किसी प्राणी का दिल दुःख रहा है? अत: यह सार्वभौम सिद्धान्त है कि हम स्वकृत दोषों को देखते ही तुरन्त उसका निवारण करें, उसे भविष्य पर न टालें।45 स्वयं के दोषों को जानना एवं तत्क्षण उनका निवारण कर आत्मा को शुद्ध, निर्मल और पावन बनाना ही प्रतिक्रमण का हार्द है। इसी को भाव प्रतिक्रमण कहते हैं।46 प्रतिक्रमण के बहुपक्षीय लाभ जैन धर्म में प्रतिक्रमण आत्मशुद्धि हेतु एक उच्च आध्यात्मिक प्रक्रिया है। सामान्यतया यह उपक्रम समस्त आराधकों के लिए है। जिन्होंने किसी प्रकार के व्रत-नियम ग्रहण नहीं किये हैं, उनके लिए भी यह आवश्यक है। इस चतुर्थ आवश्यक का विधिवत पालन करने से निम्न लाभ होते हैं• प्रतिक्रमण कर्ता को मूलगुण रूपी बारह व्रत आदि के स्वरूप की जानकारी होती है तथा अव्रती में व्रत-ग्रहण करने की भावना बलवती बनती है। • प्रतिक्रमण से व्रतों में स्थिरता एवं दृढ़ता आती है। • कर्मादान आदि अकरणीय कार्यों की जानकारी एवं उनसे बचते रहने की भावना दृढ़ बनती है। • चारित्र धर्म की विशेष अभिवृद्धि होती है। • आवश्यकसूत्रों का उच्चारण एवं मनन करने से स्वाध्याय होता है। • प्रचलित मान्यतानुसार नियतकाल में प्रतिक्रमण करने से तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन होता है। • प्रतिक्रमण के लिए जितना समय व्यतीत होता है, उतने समय योगों की प्रवृत्ति शुभ रहती है तथा अशुभ कर्मों के बन्धन से भी उतने समय के लिए बचाव हो जाता है। छह आवश्यकों में चतुर्थ प्रतिक्रमण आवश्यक में ही व्रतों का प्राधान्य है। शेष पाँच आवश्यक अव्रती के लिए भी लागू होते हैं, किन्तु छह आवश्यक की क्रिया पूर्व परम्परा से एक ही काल में क्रमबद्ध रूप से की जाती रही है अर्थात छहों आवश्यक क्रमशः एक समय में पूर्ण किये जाते हैं इसलिए व्रती-अव्रती का भेद न रखते हुए सभी के लिए यह अनुष्ठान करणीय है।
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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