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________________ प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान ...67 आदि रूप दुष्कृत्यों को ध्यान में लाकर रात्रिकाल के अन्त (प्रात:काल) में प्रतिक्रमण करना चाहिए। यदि ऐसा सम्भव न हों या जो भूलें प्रमादवश शेष रह गई हो तो उन्हें पन्द्रह दिन (पक्ष) के अंत में ध्यान में लाकर पाक्षिक प्रतिक्रमण करना चाहिए। यदि वह भी न हो पायें अथवा दैवसिक आदि प्रतिक्रमण करने के बावजूद भी भूलें रह गयी हों तो चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करना चाहिए। यदि यह भी सम्भव न हो अथवा पूर्वक्रम से प्रतिक्रमण करते हुए भी कुछ सूक्ष्मस्थूल भूलें रह गई हों तो संवत्सरी प्रतिक्रमण कर स्वयं को निश्चित रूप से दोषमुक्त करना चाहिए। इस प्रकार प्रतिक्रमण क्रिया के द्वारा अपने पुराने खाते को बराबर कर लेना, कषायों को उपशांत कर लेना तथा हृदय को सरल एवं विनम्र बनाकर सौम्यभाव की शीतल धारा में स्नान कर लेना- यही प्रतिक्रमण का हार्द है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि दोषमुक्ति की यह क्रिया दिल से हो, निश्छल भावों से हो, पवित्रतम विचारों से हो ताकि जिन दोषों का एक बार सेवन किया गया हो एवं जिन दोषों की निंदा-गर्दा कर स्वयं को धिक्कारा हो उन दोषों की पुनरावृत्ति न हो सकें, अन्यथा यह प्रतिक्रमण मात्र औपचारिक बनकर ही रह जायेगा। यदि प्रतिक्रमण करके भी फिर से उन्हीं दोषों की पुनरावृत्ति होती रहे तो वही कहावत चरितार्थ होगी कि मक्का गया हज किया, बनकर आया हाजी। आजमगढ़ में घुसते ही, फिर वही पाजी का पाजी।। ऐसा प्रतिक्रमण आत्मशोधन की दृष्टि से किंचित मात्र भी अर्थकारी नहीं होता, वह तो प्रतिक्रमण के उच्च एवं पवित्र भाव के साथ खिलवाड़ और घिनौनी हरकत करना है। उत्तराध्ययनसूत्र के 29वें अध्ययन में प्रायश्चित्त का आधार पापकर्मों से शुद्धि बताया है।44 प्रायश्चित्त के तीन रूप हैं- 1. स्वालोचना 2. स्वनिंदना 3. स्वगर्हणा। इन तीनों तरीकों को अपनाकर स्वात्म शुद्धि करना ही प्रतिक्रमण का मर्म है। यदि सच्चे दिल से प्रायश्चित्त किया जाये तो जीवन के सारे शल्य समाप्त होकर व्यक्ति के परिणाम सरल एवं निर्मल बन जाते हैं फिर दुबारा पापयुक्त कर्म को दोहराते नहीं है। दशवैकालिकसूत्र की चूलिका के अनुसार हम निर्दोष इसलिए नहीं बन पाते कि प्रमाद दशा के वशीभूत होकर गलती करते
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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