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________________ प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान ...63 में उस आवश्यक क्रिया की अनुमति लेने हेतु वंदन किया जाता है। वंदन करने से जोड़ों के दर्द की संभावना कम रहती है। मांशपेशियों में लचीलापन बना रहता है, शरीर में ऊर्जा का प्रवाह संतुलित होता है एवं शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। __पंचांग प्रणिपात पूर्वक नमस्कार मुद्रा में शरीर संतुलित एवं स्नायु संस्थान स्वस्थ हो जाता है। बायाँ घुटना ऊँचा करके जो पाठ बोले जाते हैं उससे अहंकार विलिन होकर सकारात्मक सोच विकसित होती है तथा गुणग्राहकता में भी अभिवृद्धि होती है। दायाँ घुटना खड़ा रखते हुए जो पाठ उच्चरित किये जाते हैं उससे मनोबल दृढ़, गृहित संकल्पों के पालन के प्रति उत्साह एवं प्रत्येक कार्य में सजगता बनी रहती है। खड़े होकर आलोचना आदि के पाठ बोलने से प्रमाद में न्यूनता, भावों में समरसता एवं शरीर में संतुलन बना रहता है। कायोत्सर्ग (ध्यान) मुद्रा में स्थित होने से मन के सारे आवेग शांत हो जाते हैं, प्राण शक्ति का अपव्यय रूक जाता है और सहन शक्ति का उत्तरोत्तर विकास होता है। __मिथ्यात्व आदि प्रतिक्रमण की दृष्टि से- जैन चिन्तन में कर्मबंध के मुख्य पाँच कारण माने गये हैं- 1. मिथ्यात्व 2. अविरति 3. प्रमाद 4. कषाय और 5. योग। ये पाँचों हेतु पाप प्रवृत्ति रूप हैं एवं आत्मा को राग-द्वेषादि रूप आभ्यन्तर रोगों से विकारी बनाते हैं अतः इनका प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। मिथ्यात्व आदि पाँच का प्रतिक्रमण करने से आत्मा तो रोगमुक्त एवं निजस्वभाव में स्थिर बनती ही है किन्तु बाह्य दृष्टि से भी अनेक लाभ होते हैं। 1. सत्य को सत्य के रूप में स्वीकार करना मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण है। इस प्रतिक्रमण के द्वारा स्वदोषों को स्वीकार कर लेने से सहनशीलता एवं धैर्य अभिवृद्ध होता है, प्रतिकूलता में दूसरों पर दोषारोपण की प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है। व्यक्ति स्वयं के प्रति इतना सजग हो जाता है कि किसी प्रकार का बाह्य उपचार करने से पूर्व अहिंसक उपचार को सर्वाधिक मूल्य देता है। इसी के साथ कृत्य-अकृत्य का विवेक जागृत होने से तीनों योगों की असत्प्रवृत्तियाँ छूटने लगती हैं, जिससे देहस्तरीय रोगों की संभावनाएँ समाप्त हो जाती हैं। मिथ्यात्व के प्रतिक्रमण से शरीर एवं आत्मा का भेदज्ञान होने लगता है और सम्यग्दृष्टि स्थिर होती है।
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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