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62... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना
सन्दर्भ में स्वास्थ्य का महत्त्व निम्न प्रकार है
प्रतिक्रमण काल में प्रथम सामायिक आवश्यक में चित्त की एकाग्रता पूर्वक दोषों की समीक्षा की जाती है अर्थात आत्मिक रोगों के कारणों का निदान किया जाता है। दूसरे चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक में जो सर्व प्रकार के रोगों से पूर्णत: मुक्त हो चुके हैं, उन तीर्थंकरों के आलम्बन को समक्ष रखकर स्तुति करने से स्वस्थ बनने का उपाय समझ में आता है। तीसरे वन्दना आवश्यक में आत्म चिकित्सक पाँच महाव्रतधारी सद्गुरू को विनयपूर्वक वंदन कर आत्मा को विकार मुक्त बनाने एवं स्वस्थ रहने का मार्गदर्शन प्राप्त किया जाता है। चतुर्थ प्रतिक्रमण आवश्यक में मन, वचन और काया के योगों से जिन दोषों का सेवन स्वयं के द्वारा किया गया है, दूसरों से करवाया गया है एवं दूसरों द्वारा किये गये अकरणीय कार्यों का अनुमोदन किया गया है उन सब दोषों से निवृत्त होने के लिए कृत दोषों की निन्दा, गर्दा एवं आलोचना की जाती है। इसी के साथ प्राणीमात्र के साथ प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से किसी प्रकार का दुर्व्यवहार हुआ हो, तो क्षमायाचना कर मैत्री भाव विकसित किया जाता है जिससे तनाव, चिन्ता और भय दूर होते हैं तथा मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। पाँचवें कायोत्सर्ग आवश्यक के द्वारा संयम रूप शरीर के दोष रूपी घावों का मरहम किया जाता है। इसीलिए इसका शास्त्रीय नाम व्रण चिकित्सा है इस आवश्यक द्वारा आत्मा शल्य रहित हो जाता है। द्रव्यत: शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है, जिससे समस्त प्रकार की थकान दूर हो जाती है। शल्य रहित होने से हल्केपन का अनुभव होता है।
छठवें प्रत्याख्यान आवश्यक के द्वारा भविष्य में रोग के कारणों से बचने एवं स्वयं की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने हेतु प्रायश्चित्त के रूप में आत्मा का अहित करने वाली इच्छाओं का निरोध किया जाता है। इन्द्रियों के विषय भोगों से अनासक्त होने का संकल्प लेकर प्राणों का अपव्यय रोका जाता है। बाह्यतः इससे आवेग, उद्वेग, उन्माद आदि छूट जाते हैं और मन परम शांति का अहसास करता है।
आसन-मुद्रादि की दृष्टि से- प्रतिक्रमण करते समय तद्विषयक सूत्र पाठों के उच्चारण करते हुए भिन्न-भिन्न आसनों में बैठने, झुकने अथवा खड़े होने के पीछे भी स्वास्थ्य का रहस्य समाया हुआ है। प्रत्येक आवश्यक के प्रारंभ