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60... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना उपचार है। एक महिला अपने पति के कटु व्यवहार से अत्यन्त दु:खी थी। इस दुःख के कारण उसकी मृत्यु हो गई। पति को मानसिक आघात लगा, जिससे वह क्षयरोग से ग्रस्त हो गया। मनोवैज्ञानिक परीक्षण हुआ। परीक्षण से पता चला कि इस रोग का कारण शारीरिक न होकर मानसिक है और मानसिक कारण है आत्मग्लानि। डाक्टरों ने मानसिक चिकित्सा से कुछ ही दिनों में उसे क्षयरोग से मुक्त कर दिया।37
आधुनिक विद्वानों ने अनुसंधान के आधार पर यह सिद्ध किया है कि भय से अतिसार रोग, चिंता से अपस्मार रोग एवं रक्तचाप में वृद्धि, तीव्र ईर्ष्या और घृणा से अल्सर रोग, आत्मग्लानि से क्षयरोग, अधिक स्त्री-संभोग से टी.वी, नपुंसकता, कुष्ठरोग आदि होते हैं। चिंता, क्रोध, घृणा भाव आदि से मानसिक विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं जिससे मनुष्य को अनेक शारीरिक रोगों के साथ-साथ पागलपन जैसा मानसिक रोग भी हो जाता है।38
वैज्ञानिक खोज के अनुसार गुस्सा, उदासी, चिन्ता, घृणा आदि भाव हमारी त्वचा पर गहरा प्रभाव डालते हैं। जिस समय क्रोध आता है उस समय शरीर के भीतर एक ऐसे रक्त का संचार शुरू हो जाता है जो चेहरे की तरफ के रक्त संचार को रोकता है, इसी के कारण त्वचा का रंग पीला या विवर्ण हो जाता है। अधिक क्रोध की स्थिति में चेहरे पर बहुत जल्दी झुर्रिया पड़ जाती हैं जबकि प्रसन्न रहने पर चेहरा ओज एवं तेज से चमकता रहता है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि चिंता या तनाव से केवल शारीरिक क्षति ही नहीं होती, अपितु आन्तरिक व्यवस्था भी अस्त-व्यस्त हो जाती है। फलत: पाचन क्रिया पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है और पाचन क्रिया बिगड़ने लगती है। फलतः हृदय की अन्यान्य बीमारियाँ पैदा हो जाती है। इस प्रकार मानसिक दूषित भाव शरीर, मन, आत्मा और दूसरों पर भी दूषित प्रभाव डालते हैं। इन दृषित भावों से बहिर्लोक एवं अन्तर्लोक दोनों द:खमय बनते हैं।39
तत्त्वज्ञपुरूषों ने इन समस्याओं के निराकरण हेतु प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त का विधान बतलाया है। प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त सर्वप्रथम मानसिक शद्धि करता है। जहाँ मन शुद्ध है वहाँ किसी तरह के रोगों को स्थान मिल पाना ही असंभव है। अत: मनोवैज्ञानिक पक्ष से भी प्रतिक्रमण की उपादेयता सर्वाधिक है
शारीरिक मूल्य- प्रतिक्रमण स्वयं द्वारा स्वयं के दोषों का निरीक्षण,