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प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान ...59 संकल्प करता है। इस तरह का संकल्प करते हुए भावशुद्धि में यदि उत्कृष्ट रसायन आ जाये तो तीर्थंकर नामकर्म का बंध हो जाता है।
मनोवैज्ञानिक मूल्य- जैन अवधारणा के अनुसार विश्व एवं काल अनादि है, इसलिए जीव भी अनादिकाल से है। जीव अनादिकालीन होने से कर्मबंध भी अनादिकालीन है। यद्यपि जीव में अनन्त शक्ति है किन्तु जीव को बांधने वाले कर्म भी अनन्त शक्तिशाली है। अत: उसके प्रभाव से व्यक्ति के द्वारा किसी प्रकार का अपराध हो जाना पूर्णत: संभव है। प्रतिक्रमण दोष निवारण का अमोघ उपाय है। प्रतिक्रमण प्रायश्चित के द्वारा दोष परिमार्जन होने के साथसाथ चित्तशुद्धि भी हो जाती है। जिसके फलस्वरूप मानसिक एवं शारीरिक बीमारियाँ भी उपशान्त हो जाती है।
. वर्तमान में मनोवैज्ञानिक चिकित्सकों के द्वारा अनेक रोगों की चिकित्सा प्रतिक्रमण, प्रायश्चित, स्वदोष स्वीकार आदि विधि से की जा रही है। मूलतः अधिकांश रोग तनाव से उत्पन्न होते है। तनाव का मूल कारण असत आचरण, अनैतिक क्रियाकलाप, ईर्ष्या, घृणा, द्वेष आदि रूप चित्तवृत्तियाँ है। इन कारणों से अवचेतन मन में एक प्रकार का मानसिक असंतुलन एवं विक्षोभ उत्पन्न होकर कुण्ठित मानसिकता की एवं विकृत भावनाओं की ग्रन्थि पड़ जाती है। ये ग्रन्थियाँ ही शारीरिक एवं मानसिक रोगों का कारण बनती है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जब तक आत्म निरीक्षण, स्वदोष स्वीकार, आत्म विश्लेषण, पश्चात्ताप, निन्दा, गुरू साक्षी पूर्वक आलोचना नहीं की जाती तब तक मानसिक तनाव, भावनात्मक ग्रन्थियाँ एवं तत्सम्बन्धी रोगों का निवारण मूलस्थान से नहीं हो सकता। एलोपैथिक आदि बाह्य उपचार से कुछ समय के लिए बीमारी शान्त हो सकती है किन्तु स्थायी रूप से कदापि संभव नहीं है। हम अज्ञान वश बाह्य उपचार को ही आभ्यन्तर उपचार मान बैठे हैं, यही कारण है कि अनन्तकाल से संसार की यात्रा करते-करते अब तक किनारे पर पहुँच नहीं पाये हैं असल तो यह है कि किनारा दिखा ही नहीं है।36
प्रतिक्रमण के द्वारा कृत भूलों को स्वीकार किया जाता है अतः प्रतिक्रमण कर्ता की अन्तश्चेतना अन्यायपूर्ण, अनुचित, अनैतिक, अधार्मिक कृत्यों को यथावत जान लेता है। उसके परिणामानुसार मानसिक तनाव एवं शारीरिक अस्वस्थता दोनों से भी मुक्त हो जाता है। इसलिए भाव परिष्कार ही यथार्थ