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________________ 58... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना ध्यान रखें कि जब भी प्रतिक्रमण करें और 'मिच्छा मि दक्कडं' दें तो आत्मा की आवाज के साथ दें। कहावत है कि ‘खमतखामणा कार्ड से नहीं, हार्ट से होना चाहिए' –'लड़ाई तो हो भाई से और खमतखामणा करें ब्याही से' तो क्या मतलब? नियमत: जिसका दिल दु:खाया है उससे जाकर क्षमायाचना करनी चाहिए। खमतखामणा इस तरह हो कि प्रतिकूलता का वर्तन करने वाले के प्रति भी समरसता बढ़े, मधुरता बढ़े, मैत्री और अपनत्व में वृद्धि हो। यही कषाय प्रतिक्रमण है। जैन सिद्धान्त के अनुसार कषाय देशविरति (श्रावकधर्म) और सर्वविरति (श्रमणधर्म) की प्राप्ति में भी बाधक माना गया है। कर्मग्रन्थ के अनुसार अनन्तानुबन्धी कषाय एवं दर्शन मोहनीय के रहते हुए सम्यग्दर्शन, अप्रत्याख्यान कषाय के रहते हुए श्रावक धर्म, प्रत्याख्यानावरण के रहते हुए संयतपना और संज्वलन कषाय के रहते हुए यथाख्यात चारित्र प्रकट नहीं होता। यथाख्यात चारित्र के पश्चात ही घातिकर्मों का क्षय और सिद्ध पद की प्राप्ति होती है। अत: कषाय प्रतिक्रमण द्वारा भावशुद्धि करना परमावश्यक है। कषाय प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दोनों ही प्रकार से आत्मा के उपयोग गुण या शुद्ध स्वरूप को आच्छादित करते हैं। इसीलिए उत्तराध्ययनसूत्र में कषाय को अग्नि कहा गया है और उसको बुझाने के लिए श्रुत, शील, सदाचार और तप रूपी जल बताया है।32 चतुर्विध कषाय पुनर्जन्म रूपी बेल को प्रतिक्षण खींचते रहते हैं33 तथा क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों से क्रमश: प्रीति, विनय, सरलता और संतोष रूपी सद्गुणों का नाश होता है।34 सद्गुणों का नाश होने पर आत्मा सर्वगुण को प्राप्त नहीं करता है।35 जैनागमों में जहाँ आत्मगुणों के घात की चर्चा की गई है, वहाँ आत्म गुणों के प्रकटीकरण के उपाय भी दर्शाये गये हैं- क्रोध को क्षमा से, मान को मृदुता से, माया को ऋजुता से और लोभ को संतोष से जीतना चाहिए। यदि अन्तर्मन से क्षमा-शांति, मृदुता-विनम्रता, ऋजुता-सरलता, संतोष को सम्यग् रूप से धारण किया जाये तो निश्चय ही हमारी आत्मा कषाय रहित हो सकती हैं और इस प्रकार का सम्यक् उपक्रम प्रतिक्रमण द्वारा ही अधिक संभव है। सार रूप में कषाय प्रतिक्रमण द्वारा साधक अतीत काल में लगे दोषों का शोधन कर वर्तमान में पश्चात्ताप एवं भविष्य में नये पाप कर्म न करने का
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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