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________________ प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान ...57 प्रतिक्रमण पाठ के अन्तर्गत 'खामेमि सव्व जीवे' का पाठ बोलते हैं, वह वस्तुतः कषाय निरोध और भाव शुद्धि का पाठ है। इस पाठ के प्रथम चरण का भावार्थ है कि मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूँ अथवा मेरे क्रोध भाव का शमन करता हूँ। ___ दूसरे चरण में वह चिन्तन करता है कि सभी जीव मुझे क्षमा करें। प्रथम भावार्थ तो यही कि दूसरों में दोष न देखने वाला, दूसरों के अवर्णवाद को याद न करने वाला ही विनम्र भाव से क्षमायाचना करने का अधिकारी है। यदि क्रोध भाव छूट जाये तो व्यक्ति स्वयं को सामान्य समझने लगेगा और स्वयं में ही दोष देखेगा, फलत: अहंकार छूट जायेगा और उसके छूटने पर विनम्रता का गुण प्रकट हो उठेगा। ऐसी स्थिति में ही क्षमायाचना और क्षमादान सार्थक बन सकता है। तीसरे चरण में पहँचने तक क्रोध छूट जाए, अहंकार विगलति हो जाए और स्वदोष दर्शन एवं परगुण दृष्टि विकसित हो जाए तो फिर माया को कहाँ स्थान मिल सकता है? दूसरों के गुणों का वर्णन एवं दूसरों के गुणों का चिन्तन करते ही जीव मात्र के साथ बंधुत्व भाव, मैत्री भाव स्थापित हो जाता है तब सहज ही निःसृत होता है कि ‘सभी जीव मेरे मित्र हैं' - 'मित्ती में सव्व भूएसु।' चतुर्थ चरण सबसे महत्त्व का है। अधिकांश व्यक्ति स्वार्थपूर्ति में ही जीवन खपा देते हैं तथा स्वार्थपूर्ति के लिए ही परिवार, मित्र, पडौसी आदि से सम्बन्ध रखते हैं। उस स्वार्थपूर्ति में जो वस्तुएँ या व्यक्ति बाधक बनते हैं, वह जीव उसके साथ वैर कर लेता है, लेकिन जहाँ मैत्री भाव विकसित हो जाता है वहाँ संतोष वृत्ति जग उठती है और स्वार्थ भाव समाप्त हो जाता है। परिणामत: वह जीव लोभ का परिहार करता हुआ किसी के प्रति वैर भाव नहीं रखता है। उसके अन्तर्मन में ही यह आवाज उठती है कि 'मेरा किसी से वैरभाव नहीं हैं'- वेरं मज्झं न केणई।31 इस विवेचन का तात्पर्य यह है कि आत्म रोगों के उपचार का एक मात्र उपाय प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण साधना से ही चारों कषायों का अभाव होता है और कषाय के अभाव से ही संसार भाव का अभाव होता है। वस्तुत: संसार भाव का अभाव होना ही मोक्ष है, निर्वाण है। इस प्रकार प्रतिक्रमण का महत्त्व अनिर्वचनीय है। प्रतिक्रमण कर्ता इस साधना की उपयोगिता को समझते हुए यह
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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