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________________ 56... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना हैं। हर प्रतिक्रमण एक दूसरे का पूरक है, किन्तु कषाय का प्रतिक्रमण भाव शुद्धि की अपेक्षा विशिष्ट स्थान रखता है। हमारी राग-द्वेषात्मक परिणतियों का मूल सम्बन्ध कषाय से है। कषाय के मन्द होने पर राग-द्वेष जन्य वैभाविक परिणतियाँ भी मन्द हो जाती है कहा भी गया है ‘कषायमुक्ति किल मुक्तिरेव'। अतः कषाय भावों से निवृत्त होना जीवन शुद्धि की प्रयोगशाला है। आत्म-शुद्धि के लिए कषाय का प्रतिक्रमण आवश्यक है, क्योंकि कषाय ही जन्म-मरण रूप संसार वृक्ष को हरा-भरा रखता है और समस्या में वृद्धि करता है। इस कषाय के कारण से ही घर, परिवार और समाज में दूरियाँ बढ़ती जाती है और व्यक्तिश: जीवन अशान्त बनता जाता है। यदि गहराई से सोचा जाए तो शारीरिक रोगों का मूल कारण भी कषाय है। प्रसन्नता के भाग में आग लगाने वाला, समरसता की सरिता में विष घोलने वाला, धैर्य की धरती में भूकम्प लाने वाला यदि कोई है तो वह कषाय ही है। जीवन शान्त, प्रशान्त, समाधिवन्त बना रहे, उसका एकमात्र उपाय कषाय प्रतिक्रमण ही है।30 ___ यदि वर्तमान स्थिति पर विचार करें तो ज्ञात होता है कि आज बाह्य धर्म साधना तो बहुत बढ़ती जा रही है। पहले इतनी तपश्चर्याएँ, शिविर, सामूहिक आयोजन आदि नहीं होते थे, जितने आज देखते हैं, किन्तु इसके परिणामस्वरूप भावनात्मक परिवर्तन बहुत कम नजर आ रहा है। मूल्य गणना का नहीं, गुणात्मक स्वरूप का है। मूल्य संख्या का नहीं, जीवन परिवर्तन का है। आज लक्ष्य साधन को साध्य समझने का नहीं, जीवन परिवर्तन का है। आज साधन को ही साध्य समझने की भूल हो रही है। आत्मलक्षी धर्म क्रियाएँ गौण हो रही हैं मात्र बाह्य क्रियाओं को ही प्रधानता देकर आदमी संतुष्ट हो जाता है कि हो गया धर्म। जबकि कषाय का प्रतिक्रमण अन्तश्चेतना को जागृत करता हुआ यह प्रेरणा देता है कि जो धर्म क्रियाएँ हम कर रहे हैं वे कितनी आत्मलक्षी बन पाई हैं? कितना कषाय मंद हुआ? कितना उपशांत भाव जगा? द्रव्य रूप से तो इस जीव ने द्रव्य क्रियाएँ करने में अनेक भवों में अनेक प्रयास किये, लेकिन भावशुद्धि के सूचक कषाय प्रतिक्रमण को लेकर अन्तरात्मा में कोई जागृति नहीं रही। यही कारण है कि धर्म-क्रियाएँ करते हुए भी साधना की सिद्धि में मंजिल नहीं मिल रही है। इन सबका मुख्य कारण कषाय की उपस्थिति है, जिसका निवारण प्रतिक्रमण के द्वारा ही सम्भव है।
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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