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प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान ...55
अणुबम द्वारा धराशायी कर देना, अर्थ प्राप्ति के निमित्त पिता को जेल में डाल देना, बेटे का कत्ल करवा देना, बहू को स्टोव आदि से जला देना आदि मिथ्यात्व रूप, अतिक्रमण हैं। प्रतिक्रमण के द्वारा उक्त प्रकार की मनोवृत्ति को समाप्त किया जाता है।
जैन परम्परा के तत्त्वचिन्तक फूलचन्दजी मेहता प्रासंगिक विषय पर बल देते हु कहते हैं कि सम्यक्त्व दृढ़ वज्रमय, उत्तम एवं गहरी आधार शिला रूप नींव है, इस पर चारित्र एवं तप का महान पर्वताधिराज सुदर्शन मेरू टिका हुआ है ऐसे रत्न के विषय में अनभिज्ञ रहना मिथ्यात्व है। पर पदार्थों के उपभोग करने का भाव एकांत पाप है और उनके भोग में आनन्द या सुख मानना एकांत मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व भाव से अतिक्रमण होता है। अतिक्रमण आस्रव रूप प्रक्रिया है जबकि प्रतिक्रमण संवर रूप प्रक्रिया है । एक संसार मार्ग को पुष्ट करती है और दूसरी मोक्ष मार्ग को प्रशस्त करती है। प्रतिक्रमण के माध्यम से जीव वैभाविक राग, द्वेष, मोह, अज्ञान आदि भावों से रत्नत्रय रूप स्वभाव में प्रवेश करता है, जो संवर रूप है। प्रतिक्रमण संवर रूप होने के साथ प्रायश्चित्त तप का अंग होने से निर्जरा रूप भी है | 28
पुनश्च उल्लेख्य है कि पापास्रव के पाँच द्वार हैं उनमें मुख्य स्थान मिथ्यात्व का है। संसारी जीव सबसे पहले मिथ्यात्व से जुड़ता है फिर क्रमशः अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से जुड़ता है तो छूटने का क्रम भी इसी तरह होता है। इस नियम के अनुसार सबसे पहले मिथ्यात्व से छूटने का पुरुषार्थ करना चाहिए, उसके लिए प्रतिक्रमण ही सशक्त उपाय है, क्योंकि मिथ्यात्व रूपी आस्रव का प्रतिरोधक तत्त्व एवं निर्जरा प्रधान तत्त्व प्रतिक्रमण ही है। प्रतिक्रमण होने पर संसार अल्प रह जाता है और मोक्षमार्ग का प्रारम्भ हो जाता है। प्रतिक्रमण के आध्यात्मिक मूल्य को समझ सकें, इस उद्देश्य से यह ज्ञात कर लेना भी आवश्यक है कि वह मात्र कुटुम्ब - परिवार, धन-वैभव आदि को छोड़ने की क्रिया नहीं है तथा पापाचार से पुण्याचार में आने की शुभ क्रिया भी नहीं है, बल्कि सर्व कषायों से क्रमश: छूटने की एवं आत्मा की शुद्ध परिणति की क्रिया है। यही पारमार्थिक प्रतिक्रमण है जब भाव प्रतिक्रमण सध जाता है तब वह जीव यथाख्यात चारित्र प्राप्त कर घाति कर्मों से मुक्त हो जाता है। 29
भावनात्मक मूल्य- स्थानांगसूत्र में पाँच प्रकार के प्रतिक्रमण बताये गये