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54... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना विविध मूल्यों के सन्दर्भ में प्रतिक्रमण की प्रासंगिकता
प्रतिक्रमण एक आवश्यक कर्म है। आत्म शुद्धि के लिए जो अवश्य करणीय है, उसे आवश्यक कहा गया है। आवश्यक छह माने गये हैं1. सामायिक (सावद्ययोग विरति) 2. चतुर्विंशतिस्तव (उत्कीर्तन) 3. वन्दना (गुणवत्प्रतिपत्ति) 4. प्रतिक्रमण (स्खलित निन्दा) 5. कायोत्सर्ग (व्रणचिकित्सा)
और 6. प्रत्याख्यान (गुणधारणा)। इन छह आवश्यकों में प्रतिक्रमण का प्राधान्य होने से षडावश्यकों को 'प्रतिक्रमण' शब्द से अभिहित किया जाता है अत:प्रतिक्रमण में इन छहों आवश्यकों का समावेश है। प्रतिक्रमण की उपादेयता इस कथन से ही सिद्ध हो जाती है।
यदि हम विवेच्य विषय का गहराई से मूल्यांकन करें तो इसकी उपयोगिता विविध दृष्टियों से परिलक्षित होती है
आध्यात्मिक मूल्य- जीव का स्वभाव से विभाव में जाना अतिक्रमण है तथा पुनः स्वभाव में स्थित होना प्रतिक्रमण है। अथवा दूसरों पर आक्रमण करना अतिक्रमण है और स्वयं पर आक्रमण करना प्रतिक्रमण है। जीव मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं अशुभयोग के कारण स्वभाव से विभाव में गमन करता है उसे पुनः सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय एवं शुभ योग में लाना प्रतिक्रमण कहा जाता है। यह प्रतिक्रमण का वास्तविक स्वरूप है। इसके अनुसार जब तक आत्मा पूर्ण शुद्ध नहीं होती तब तक प्रतिक्रमण की आवश्यकता बनी रहती है।27
नगरपालिका द्वारा 'अतिक्रमण हटाओ' का अभियान कब से चल रहा है। आजकल माफिया के सहकार से अतिक्रमण निवारण का दौर चल रहा है किन्तु हमारी चेतना अनादिकाल से अतिक्रमण कर रही है। अतिक्रमण के मुख्य कारण मिथ्यात्वादि पाँच हैं। यदि इन्हें संख्या देकर 1,2,3,4,5 लिखें तो 12345 होता है। इसमें सबसे ज्यादा ताकत एक (मिथ्यात्व) की है, उसके हटते ही 2345 रह जाते हैं और अव्रत के हटते ही 345 रह जाते हैं। इसका सार यह है कि व्यक्ति के जीवन में सबसे अधिक अतिक्रमण मिथ्यात्व से होता है, जैसे शरीर को अपना मानना, धन-सम्पत्ति को अपना मानना, दैहिक सुख-सुविधा या धनसम्पदा जुटाने के लिए जीवों का घात करना, स्वार्थ पूर्ति हेतु छल-कपट करना, एक व्यक्ति की गलती का बदला चुकाने के लिए स्थानीय नागरिकों को ही