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प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान ...53 उनके विचारों के आधार पर यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं होगा कि प्रतिक्रमण से ही जीवनचर्या में सच्ची सामायिक, सच्ची समता और सच्ची समाधि आती है। समता जीवन का पर्याय बनता है, व्यक्ति निज स्वरूप के उन्मुख प्रवृत्ति करता है, फलतः प्रवृत्ति भी उसे निवृत्ति की ओर अग्रसर करती है।23
प्रतिक्रमण के महत्त्व को आख्यायित करते हुए शास्त्रकारों ने कहा है कि इस भरत क्षेत्र के जम्बूद्वीप में मेरू आदि जितने पर्वत हैं वे सब सोने के बन जायें और जम्बूद्वीप क्षेत्रान्तर्गत जितनी बालू है वह सब रत्नमय बन जाये तथा उतने स्वर्ण और रत्न का सात क्षेत्रों में दान दिया जाये, तो भी आत्म परिणामों की उतनी शुद्धि नहीं होती, जितनी भावपूर्वक आलोचना करके प्रायश्चित्त वहन करने पर होती है।24 . प्रायश्चित्त मूलक ग्रन्थों में कहा गया है कि किसी व्यक्ति ने आलोचना पूर्वक प्रायश्चित्त ग्रहण करने के लिए सद्गुरु की प्राप्ति हेतु प्रस्थान किया हो
और प्रायश्चित्त लेने के पहले ही वह बीच मार्ग में मृत्यु को प्राप्त हो जाए, तो भी आराधक कहलाता है तथा अशुद्ध आलोचना करने वाला विराधक माना गया है।25
इसका सार यह है कि जब केवल अपराध शुद्धि का भाव रखने वाला व्यक्ति भी आराधक कहा जा सकता है ऐसी स्थिति में प्रायश्चित्त स्वीकार करने वाले के सम्बन्ध में तो जो कोई लज्जा से अथवा 'मैं इतना बड़ा हूँ' 'पाप प्रकट करने से मेरी लघुता होगी'- इस प्रकार गर्व से अथवा बहुश्रुत के मद से गुरु के समक्ष अपने दुश्चरित्र का निवेदन नहीं करता, वह वास्तव में आराधक नहीं कहलाता है।26 इसका तथ्य यह है कि आलोचना एवं प्रायश्चित्त करने वाले ही आराधक की कोटि में आते हैं। प्रतिक्रमण में आलोचना और प्रायश्चित्त दोनों का अन्तर्भाव हो जाता है। अत: आराधक भाव की दृष्टि से भी प्रतिक्रमण का मूल्य अनिर्वचनीय है।
शास्त्रकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनुसार प्रतिक्रमण की क्रिया सम्पूर्ण चारित्रगुण का संग्रह रूप है। ज्ञान, दर्शन या चारित्र धर्म से जुड़ी हुई कोई क्रिया ऐसी नहीं है जिसका प्रतिक्रमण आवश्यक में विचार न किया गया हो। इसलिए प्रतिक्रमण अति गंभीर अर्थ वाला है। इस क्रिया के रहस्य को समझने हेतु जिंदगी भी कम पड़ सकती है।