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________________ प्रतिक्रमण के गूढ़ रहस्यों का विविध पक्षीय अनुसंधान ... 41 स्थिति से आगे भी बढ़ जाते हैं। ध्यान ही आध्यात्मिक जीवन के विकास की कुंजी है। इसके लिये अन्तर्दृष्टिवान बार-बार ध्यान - कायोत्सर्ग किया करते हैं। ध्यान द्वारा चित्त शुद्धि करते हुए वे आत्मस्वरूप में विशेषतया लीन हो जाते हैं। अतएव जड़ वस्तुओं के भोग का परित्याग - प्रत्याख्यान भी उनके लिये साहजिक क्रिया है। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि आध्यात्मिक पुरुषों के उच्च एवं स्वाभाविक जीवन का पृथक्करण ही 'आवश्यक क्रिया' के क्रम का आधार है। जब तक सामायिक प्राप्त न हो, तब तक चतुर्विंशतिस्तव भावपूर्वक किया ही नहीं जा सकता, क्योंकि जो स्वयं समभाव को प्राप्त नहीं है, वह समभाव में स्थित महात्माओं के गुणों को जान नहीं सकता और न उनसे प्रसन्न होकर उनकी प्रशंसा कर सकता है। इसलिये सामायिक के पश्चात चतुर्विंशतिस्तव का अधिकारी वन्दन विधिपूर्वक कर सकता है। क्योंकि जिसने चौबीस तीर्थंकरों के गुणों से प्रसन्न होकर उनकी स्तुति नहीं की है, वह तीर्थंकरों के मार्ग के उपदेशक सद्गुरु को भावपूर्वक वन्दन कैसे कर सकता है? इसी कारण वन्दन को चतुर्विंशतिस्तव के बाद रखा गया है। वन्दन के पश्चात प्रतिक्रमण को स्थान देने का आशय यह है कि आलोचना गुरु के समक्ष की जाती है। जो गुरु को वन्दन नहीं करता, वह आलोचना का अधिकारी ही नहीं। गुरु वन्दन के बिना की जाने वाली आलोचना नाममात्र की आलोचना है, उससे कोई साध्य सिद्धि नहीं हो सकती। सच्ची आलोचना करने वाले अधिकारी के परिणाम इतने नम्र और कोमल होते हैं कि जिससे वह मन ही मन गुरु के पैरों में सिर नमाता है । कायोत्सर्ग की योग्यता प्रतिक्रमण कर लेने पर आती है। इसका कारण यह है कि जब तक प्रतिक्रमण द्वारा पाप की आलोचना करके चित्त शुद्धि न की जाए, तब तक धर्मध्यान या शुक्लध्यान के लिये एकाग्रता संपादन करने का, जो कायोत्सर्ग का उद्देश्य है, वह किसी तरह सिद्ध नहीं हो सकता। आलोचना के द्वारा चित्त शुद्धि किये बिना जो कायोत्सर्ग करता है, उसके दिल में उच्च ध्येय का विचार कभी नहीं आता। वह अनुभूत विषयों का ही चिन्तन किया करता है। कायोत्सर्ग करके जो विशेष चित्त शुद्धि, एकाग्रता और आत्मबल प्राप्त करता है, वही प्रत्याख्यान का सच्चा अधिकारी है। जिसने एकाग्रता प्राप्त नहीं
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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