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________________ 40... प्रतिक्रमण एक रहस्यमयी योग साधना जाना चाहिए और 'मैं क्या कर रहा हूँ' ? इस बिन्दु पर गंभीरता से विचार करना चाहिए तथा जीवन की दिशा बदलनी चाहिए। जीवन दिशा को परिवर्तित करना, उसे आत्माभिमुख करना 'पडिक्कमामि' पद का परमार्थ है। यह आत्मा अनादिकाल से पाप कर्म कर रहा है इसलिए उसे पाप करने की आदत पड़ गई है। वह बार-बार पापकर्म न कर सकें, उस हेतु उपालम्भ देना चाहिए, उस पर अनुशासन रखना चाहिए। जैसे कि हे आत्मन्! तूं क्या कर रहा है, जहाँ नहीं जाना चाहिए उस ओर गमन कर रहा है, जहाँ जाना चाहिए वहाँ से उदासीन है, पाप का फल दुःख है, ऐसा जानते हुए पापमार्ग का त्याग कर और धर्म मार्ग की आराधना कर ! इत्यादि बोध वाक्यों से आत्मा को अनुशासित करना 'निंदामि' पद का परमार्थ है। पाप से पीछे हटने या आत्मा को नियन्त्रित करने मात्र से पाप की पूर्ण शुद्धि नहीं होती। उसके लिए पश्चात्ताप होना चाहिए और वह मस्तक पर एक प्रकार के भारी बोझ जैसा लगना चाहिए। पाप भार को हल्का करने के लिए गुरु सम्मुख आलोचना करनी चाहिए तथा उस योग्य प्रायश्चित्त ग्रहण करने की तत्परता दिखानी चाहिए, यही 'गरिहामि' पद का परमार्थ है। प्रतिक्रमण, निंदा और गर्हा करने के पश्चात साधक की आत्मा कषाय युक्त न हो, तत्सम्बन्धी सावधानी रखनी चाहिए, क्योंकि समस्त प्रकार के पाप आत्मा से ही उत्पन्न होते हैं और इसके माध्यम से ही विकास को प्राप्त करते हैं। कषायवान आत्मा का त्याग करना ही 'अप्पाणं वोसिरामि' पद का परमार्थ है। इस प्रकार प्रतिक्रमण द्वारा आत्म शुद्धि की चार भूमिकाएँ हैं । षडावश्यक क्रम की स्वाभाविकता एवं रहस्यमयता जो अन्तर्दृष्टि वाले हैं, उनके जीवन का प्रधान उद्देश्य समभाव की प्राप्ति करना है । इसलिए उनके प्रत्येक व्यवहार में समभाव का दर्शन होता है । अन्तर्दृष्टि वाले जब किसी को समभाव की पूर्णता के शिखर पर पहुँचे हुए जानते हैं, तब वे उसके वास्तविक गुणों की स्तुति करने लगते हैं। इसी तरह वे समभाव स्थित साधु पुरुष को वन्दन - नमस्कार करना भी नहीं भुलते । अन्तर्दृष्टि से जागृत साधकों में ऐसी अप्रमत्तता होती है कि कदाचित वे पूर्व वासनावश या कुसंसर्गवश समभाव से गिर जाएं, तब भी उस अप्रमत्तता के कारण प्रतिक्रमण करके अपनी पूर्व-प्राप्त स्थिति को फिर से पा लेते हैं और कभी-कभी तो पूर्व
SR No.006249
Book TitlePratikraman Ek Rahasyamai Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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