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38...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
श्रुतज्ञान के अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य इन दो भेदों की चर्चा करते हुए अंगबाह्य श्रुत को दो भागों में विभक्त किया है- 1. आवश्यक और 2. आवश्यक व्यतिरिक्त। आवश्यक श्रुत को सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान- ऐसे छः प्रकार का बतलाया है तथा आवश्यक व्यतिरिक्त के कालिक और उत्कालिक ऐसे दो भेद किए हैं। यहाँ ज्ञातव्य है कि आवश्यक श्रुत के छ: प्रकारों में समस्त करणीय क्रियाओं का समावेश हो जाता है इसलिए अंगबाह्य सूत्रों में आवश्यक सूत्र को प्रथम स्थान दिया गया है। ___ इसके अनन्तर अनुयोगद्वार सूत्र में अपेक्षाकृत विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। इसमें आवश्यक के पर्याय, आवश्यक के निक्षेप, आवश्यक के भेद-प्रभेद आदि का सम्यक निरूपण किया गया है। वस्तुत: इस सूत्र में पृथक्-पृथक् विषयों से सम्बन्धित तेरह विभाग हैं, उनमें प्रथम ‘आवश्यक निरूपण' नाम का विभाग है।
तदनन्तर विशेषावश्यकभाष्य, नन्दीचूर्णि, आवश्यक टीका, अनुयोग टीका आदि आगमिक व्याख्या साहित्य में आवश्यक शब्द के पर्याय एवं उसके प्रकारों का व्युत्पत्तिलभ्य, तत्त्व मीमांसीय आदि अर्थ प्राप्त होते हैं। दिगम्बर परम्परा के भगवती आराधना, मूलाचार, अनगार धर्मामृत आदि ग्रन्थों में भी यह चर्चा की गई है। उपसंहार
जो साधक के लिए अवश्य करणीय है, आवश्यक कहलाता है। जीवन में अनेक आवश्यक कर्म होते हैं, किन्तु यहाँ आवश्यक से अभिप्रेत लौकिक क्रिया नहीं, अपितु लोकोत्तर क्रिया है। दिवस और रात्रि के अंत में श्रमण और श्रावक द्वारा जो अनिवार्य रूप से करने योग्य है उसका नाम आवश्यक है।
__ आगम में सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान- इन छ: प्रकार की क्रियाओं को 'आवश्यक' की संज्ञा से अभिहित किया है। जीवित रहने के लिए जिस प्रकार श्वास लेना जरूरी है उसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश पाने के लिए एवं जीवन की पवित्रता के लिए आवश्यक क्रिया अनिवार्य है।
आवश्यक अनुष्ठान ज्ञान और क्रिया पक्ष का समन्वित प्रयोग है। आवश्यक के सूत्र पाठ याद हों, लेकिन तद्प आचरण (क्रिया) न हो तो केवल पाठों के ज्ञान का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इसी तरह आवश्यक सम्बन्धी कृतिकर्म,कायोत्सर्ग आदि क्रियाएँ गडरिया प्रवाह की भाँति सम्पन्न कर लें और