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आवश्यक का स्वरूप एवं उसके भेद ...39 उनका सम्यक बोध न हो, तो मात्र दैहिक साधना का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। अत: सूत्र ज्ञान और तद्रूप क्रियान्विति में ही आवश्यक का साफल्य
उपाध्याय यशोविजयजी रचित ज्ञानसार (2/8) में सम्यक क्रिया का महत्त्व बतलाते हुए कहा गया है कि क्रिया रहित ज्ञान निश्चित रूप से निर्वाण प्राप्ति में असमर्थ है। कोई मार्ग का ज्ञाता होने पर भी गमन क्रिया नहीं करें तो इच्छित स्थल पर नहीं पहँच सकता है। जिस प्रकार दीपक स्वयं प्रकाश रूप है फिर भी तेल पूरने आदि की क्रियाएँ अपेक्षित रहती हैं उसी प्रकार पूर्ण ज्ञानी के लिए भी समयानुसार स्वभाव रूप कार्य के अनुकूल क्रियाओं की अपेक्षा रहती हैं। जो लोग क्रिया पक्ष का निषेध करते हैं वे मुँह में ग्रास रखे बिना ही तृप्ति पाना चाहते हैं, किन्तु ऐसा कभी भी संभव नहीं है।
इस क्रम में यह भी निर्दिष्ट किया है कि आवश्यक क्रिया रूप गुणीजनों का बहुमान आदि करने से तथा स्वीकृत नियमों के प्रति सचेत रहने से विशुद्ध भावों का रक्षण होता है और अनुत्पन्न शुभ भाव प्रकट होते हैं तथा क्षायोपशमिक भावपूर्वक की जाने वाली क्रिया से पतित भावों की फिर से विशुद्धि एवं वृद्धि होती है। अतएव गुणवृद्धि अथवा उत्पन्न शुभ भाव नष्ट न हो जाए इस उद्देश्य से क्रिया अवश्य करनी चाहिए। वचनानुष्ठान अर्थात अर्थबोधयुक्त सूत्रोच्चारण से असंग क्रिया (मोक्ष प्राप्ति) की योग्यता प्राप्त होती है। इस प्रकार ज्ञानयुक्त क्रिया संसार उच्छेदक और मोक्षदायक होती है।
जैन परम्परा की भांति वैदिक संस्कृति में भी आवश्यक क्रियाओं की अवधारणा है, किन्तु वहाँ उसे 'नित्यकर्म' की संज्ञा दी गई है। यद्यपि अधिकारी भेद की अपेक्षा असमानता भी है। जैन धर्म का आवश्यक कर्म मानव मात्र के लिए एक समान है। किसी भी जाति-वर्ग का अनुयायी सामायिक आदि की आराधना कर सकता है। श्रमण और गृहस्थ दोनों छह आवश्यक का समान अधिकार रखते हैं। इस प्रकार जैन संस्कृति की आवश्यक साधना प्रत्येक मानव के लिए कल्याण का पथ प्रशस्त करती हैं जबकि हिन्दु परम्परा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिए पृथक-पृथक नित्यकर्म बतलाए गए हैं। ब्राह्मण के लिए छ: कर्मों का निर्देश है- दान लेना, दान देना, यज्ञ करना, यज्ञ करवाना, अध्ययन करना और अध्ययन करवाना। क्षत्रिय के लिए रक्षा करना आदि, वैश्य के लिए व्यापार, कृषि, पशुपालन आदि एवं शूद्र के लिए सेवा