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आवश्यक का स्वरूप एवं उसके भेद ...35 अस्तित्व है।
वर्तमान में विशेषावश्यकभाष्य का ही सर्वाधिक महत्त्व है। यह भाष्य मूलत: प्रथम सामायिक आवश्यक पर 3603 प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है। सामान्यतया इस भाष्य में आगम साहित्य में वर्णित सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर चिन्तन किया गया है। पुनश्च इसमें ज्ञानवाद, प्रमाणवाद, आचार, नीति, नयवाद, कर्म सिद्धान्त आदि से सम्बन्धित प्रचुर एवं सारभूत सामग्री का संकलन किया गया है।
इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जैन दार्शनिक सिद्धान्तों की तुलना अन्य दार्शनिक विचारधाराओं के साथ की गई है इसमें जैन आगमिक मान्यताओं का तार्किक दृष्टि से विश्लेषण किया गया है। इस प्रकार आगम के रहस्यों को सुगमतापूर्वक सुबोध रूप से समझने के लिए यह भाष्य अत्यधिक उपयोगी है। इससे परवर्ती आचार्यों ने विशेषावश्यकभाष्य की विचार सामग्री एवं शैली का उदारता पूर्वक अपने ग्रन्थों में उपयोग किया है।
3. आवश्यकचूर्णि- जिनदासगणिमहत्तर रचित यह चूर्णि मुख्य रूप से नियुक्ति के अनुसार लिखी गई है। इसमें यत्र-तत्र भाष्य गाथाओं का भी उपयोग किया गया है। इसमें ऐतिहासिक कथानकों की भरमार है, अत: यह चूर्णि अन्य चूर्णियों से विस्तृत है। सांस्कृतिक दृष्टि से यह अत्यन्त मूल्यवान है। यह संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में निबद्ध है।
___4. स्वोपज्ञटीका- आवश्यक सूत्र पर अनेक टीकाएँ प्राप्त होती हैं जैसे• कोट्याचार्य कृत टीका • हारिभद्रीय टीका • मलधारी हेमचन्द्रकृत टीका • मलयगिरि टीका • आवश्यक नियुक्ति दीपिका • आवश्यक टिप्पणम् आदि। इन टीकाओं का सामान्य निरुपण निम्न प्रकार है. स्वोपज्ञ टीका- यह संस्कृत टीका विशेषावश्यकभाष्य पर आधारित है। आचार्य जिनभद्र के दिवंगत होने के कारण यह टीका अधूरी ही लिखी गई थी, जिसे कोट्याचार्य ने सम्पूर्ण की।
कोट्याचार्यकृत टीका- यह टीका भी विशेषावश्यकभाष्य पर अवलंबित है। इस टीका में प्रारंभ की गाथाओं का विस्तृत व्याख्यान किया गया है, लेकिन बाद की गाथाओं में संक्षिप्तिकरण है। इस टीका का ग्रंथमान 13700 श्लोक परिमाण है। पं. सुखलालजी ने आचार्य शीलांक का ही अपर नाम