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आवश्यक का स्वरूप एवं उसके भेद ...31 हरिभद्रसूरि (8वीं शती) के समय तक प्रतिक्रमण विधि में सन्निविष्ट नहीं था; क्योंकि उन्होंने पंचवस्तु ग्रन्थ में जो दैवसिक प्रतिक्रमण विधि उल्लेखित की है उसमें 'सिद्धाणं बुद्धाणं' के पश्चात मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन पूर्वक गुरुवन्दन करके तीन स्तुति पढ़ने का ही निर्देश किया है।84 किन्तु विक्रम की 13वीं शती पर्यन्त श्रुतदेवता आदि के कायोत्सर्ग की विधि परम्परागत सामाचारी में प्रविष्ट हो चुकी थी। यही कारण है कि आचार्य जिनप्रभसूरि ने विधिमार्गप्रपा में इस विधि का स्पष्ट उल्लेख किया है।
आवश्यक टीका (पृ. 793) का अध्ययन करने से यह भी निश्चित होता है कि विधि-विषयक सामाचारी भेद प्राचीनतम हैं, कारण कि टीकाकार आचार्य हरिभद्रसूरि ने सम्मत विधि के अतिरिक्त अन्य विधि का भी सूचन किया है। अन्य विधि के अनुसार उस काल में पाक्षिक प्रतिक्रमण के अन्तर्गत क्षेत्रदेवता के कायोत्सर्ग का प्रचलन नहीं था पर शय्या देवता का कायोत्सर्ग किया जाता था। कोई परम्परा वाले चातुर्मासिक प्रतिक्रमण के समय भी शय्या देवता का कायोत्सर्ग करते थे तथा चातुर्मासिक-सांवत्सरिकप्रतिक्रमण में क्षेत्रदेवता का कायोत्सर्ग करते थे।85 ___ जहाँ तक दिगम्बर परम्परा के आवश्यक क्रिया सम्बन्धी मूल सूत्रों का सवाल है वहाँ कतिपय विद्वानों के अनुसार इस सम्प्रदाय में साधु परम्परा विरल हो जाने के कारण आवश्यक क्रिया लुप्त होने के साथ-साथ आवश्यक क्रिया के मूल सूत्रों का भी अभाव हो गया है।86 यद्यपि वट्टकेर रचित मूलाचार में छह आवश्यक का स्वरूप स्पष्ट रूप से कहा गया है,किन्तु सूत्र सम्बन्धी कोई विवरण नहीं है। दूसरे मूलाचार में आवश्यक का प्रतिपादन करने वाली अधिकांश गाथाएँ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के भद्रबाहु रचित नियुक्ति के समान ही है। इससे प्राचीनकाल में श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदाय में परस्पर षट् आवश्यकों के सम्बन्ध में किंचिद् एकरूपता थी, ऐसा आभास होता है। ___ आवश्यक क्रिया सम्बन्धी कुछ नियुक्ति गाथाएँ आज भी प्रचलन में है। कुछ विद्वानों को इस सम्प्रदाय के आवश्यक क्रिया सम्बन्धी दो ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं, जिनमें एक मुद्रित और दूसरा लिखित है। दोनों में सामायिक और प्रतिक्रमण के पाठ हैं। इन पाठों में अधिकांश भाग संस्कृत है, जो मौलिक नहीं है। जो भाग प्राकृत रूप है उसमें भी नियुक्ति के आधार से मौलिक सिद्ध होने वाले