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30... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
किये जाते हैं। सूत्र ग्रहण की इस प्रक्रिया को उपधान कहते हैं।
जैन विद्वानों ने णमुत्थुणसूत्र जो मूलतः चैत्यवन्दन सूत्र हैं इसे भी आवश्यक के मूल सूत्र के रूप में स्थान नहीं दिया है। संभवतया उनका मन्तव्य यह है कि आवश्यक क्रिया आत्मालोचना रूप हैं, जबकि णमुत्थुणं सूत्र परमात्म स्तुति रूप है अत: इसे आवश्यक क्रियागत कैसे माना जाए ?
इस विषय में हमारा कहना यह है कि अरिहंत परमात्मा प्राणी मात्र के परम उपकारी हैं। आत्मशुद्धि रूप प्रतिक्रमण क्रिया के अवसर पर उनके उपकारक भावों का स्मरण करना, उनके अवलंबन से स्व-स्वरूप की प्रतीति करना, आत्मसामर्थ्य का अहसास करना प्राथमिक कर्तव्य है । परमात्म अनुग्रह के बिना आत्म अवलोकन का अवसर भी प्राप्त नहीं हो सकता है अतएव इसे मूल आवश्यक के रूप में परिगणित करना चाहिए। दूसरे, यह स्तुति रूप है और स्तव दूसरा आवश्यक भी है।
वर्तमान उपलब्ध भगवतीसूत्र, कल्पसूत्र आदि में भी यह सूत्र पाठ मौजूद है। ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर तीर्थंकर परमात्मा के च्यवन कल्याणक के अवसर पर प्रथम देवलोक के इन्द्र सौधर्म द्वारा भी यह सूत्र बोला जाता है, अतः इसका अपर नाम शक्रस्तव भी है।
तीसरा बिन्दु यह है कि श्वेताम्बरवर्ती सभी परम्पराएँ यह आवश्यक क्रिया का एक प्रमुख सूत्र है। नमस्कार मंत्र आदि सूत्रों के समान इसका भी उपधान किया जाता है तथा यह प्राकृत भाषा में भी निबद्ध है । आचार्य हरिभद्रसूरि ने इस सूत्र पर ललित विस्तरा नामक टीका भी रची है जो अत्यन्त प्रसिद्ध है। इन तथ्यों के आधार पर प्रस्तुत सूत्र को मूल आवश्यक के अन्तर्भूत स्वीकार करना चाहिए।
फलित यह है कि जो सूत्र प्राकृत भाषा में गद्य या पद्य में निबद्ध हैं, जिन सूत्रों पर नियुक्तियाँ या टीकाएँ रची गई हैं तथा जो पूर्व समय से आवश्यक क्रिया करते समय पढ़े जाते हैं वे सभी मूल सूत्र हैं, ऐसा मानना चाहिए।
यहाँ प्रसंगवश यह सूचित कर देना उपयुक्त होगा कि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में दैवसिक प्रतिक्रमण करते समय पाँचवें कायोत्सर्ग के अन्त में सिद्धाणं बुद्धाणं सूत्र के बाद श्रुतदेवता तथा क्षेत्रदेवता की आराधना निमित्त एक-एक नमस्कार मन्त्र का कायोत्सर्ग कर स्तुति कही जाती हैं। यह भाग आचार्य