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आवश्यक का स्वरूप एवं उसके भेद ...29
करते समय टीकाकार ने सूत्रकार आह, तच्च इदं सूत्रं, इत्यादि शब्दों का उल्लेख नहीं किया है तथापि प्रत्याख्यान आवश्यक में नियुक्तिकार ने प्रत्याख्यान का सामान्य स्वरूप दिखाते समय अभिग्रह की विविधता के कारण श्रावक के अनेक भेद बतलाए हैं। इससे ज्ञात होता है कि श्रावक धर्म के उक्त सूत्रों को लक्ष्य में रखकर ही नियुक्तिकार ने श्रावक धर्म की विविधता का वर्णन किया है।
दूसरे, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा की प्रचलित सामाचारी में प्रतिक्रमण की स्थापना की जाती है वहाँ से लेकर 'नमोऽस्तु वर्धमानाय' की स्तुति पर्यन्त में छह आवश्यक पूर्ण हो जाते हैं तथा प्रतिक्रमण छह आवश्यक रूप ही होता है। इससे इतना तो स्पष्ट ही है कि प्रतिक्रमण की स्थापना के पूर्व किए जाने वाले चैत्यवन्दन का भाग और 'नमोऽस्तु वर्धमानाय' की स्तुति के बाद बोले जाने वाले स्तवन, सज्झाय, शान्तिस्तव आदि, ये सब छह आवश्यक के बहिर्भूत हैं।
भाषा दृष्टि से देखा जाए तो भी यह सिद्ध होता है कि जो सूत्र रचनाएँ अपभ्रंश, हिन्दी, संस्कृत, गुजराती आदि में हैं, वे मूल आवश्यक का अंग नहीं हो सकती है क्योंकि समग्र मूल आवश्यक प्राकृत भाषा में ही है। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि वर्तमान परम्परा में छह आवश्यक के अन्तर्गत कहे जाने वाले सात लाख, अठारह पापस्थान, ज्ञान- दर्शन - चारित्र आदि सूत्र भी मूल आवश्यक अथवा मौलिक सूत्र की कोटि में नहीं है। पंडित सुखलालजी ने आयरिय उवज्झाय, वेयावच्चगराणं, पुक्खरवरदी, सिद्धाणं बुद्धाणं, सुअदेवया भगवई स्तुति आदि सूत्रों को भी मौलिक सूत्र के अन्तर्भूत स्वीकार न करके प्राचीन सूत्र के रूप में मान्य किया है और इसके पीछे यह हेतु दिया है कि आचार्य हरिभद्रसूरिजी ने इन सूत्रों की व्याख्याएँ की है अतएव ये प्राचीन हैं।
इस सम्बन्ध में हमारा अभिमत यह है कि आचार्य हरिभद्रसूरि के पूर्व पुक्खरवरदी आदि सूत्र गुंफित हो चुके थे, तभी टीकाकार इनकी व्याख्या कर पाये। दूसरे, ये सूत्र मूल प्राकृत भाषा में ही निबद्ध हैं अत: इनकी गणना मौलिक सूत्र की कोटि में की जानी चाहिए। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा इन्हें मूल सूत्र के रूप में ही स्वीकार करती हैं। इसका प्रमाण यह है कि जैसे नमस्कार मंत्र, ईर्यापथिक सूत्र, लोगस्स सूत्र आदि विशिष्ट तपाराधना एवं गुरुमुख (वाचना) पूर्वक ग्रहण किये जाते हैं वैसे पुक्खरवरदी आदि सूत्र भी पूर्ववत ही अधीत