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24...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
सिद्धान्तत: इस प्रकार का कथन या मानसिकता उचित नहीं है, कारण कि मूल पाठों का रूपान्तरण करने से उनकी मौलिकता एवं प्राणवत्ता समाप्त हो जाती है। जैसे मंत्रों का अनुवाद करने पर वे उतने प्रभावपूर्ण नहीं रहते वैसे ही आवश्यक क्रिया के मूल पाठों का अनुवाद उतना फलदायी नहीं होता। वस्तुतः मूल पाठों को मन्त्र रूप माना गया है, अत: उनका उच्चारण प्राकृत में और अर्थ सहित मनन अपनी भाषा में करना ही उत्तम है। इसके लिए यथासंभव गुरुमुख से अथवा पाठार्थ युक्त पुस्तकों से सूत्र पाठों का अध्ययन करना चाहिए।
यदि मूल पाठों को हिन्दी आदि अन्य भाषा में परिवर्तित कर दिया जाए तो आवश्यक की विधि में भी एकरूपता नहीं रहेगी। विविध प्रान्तों के लोग यदि एक स्थान पर एकत्रित हुए तो किसकी भाषा को प्रमुखता दी जाएगी। सामान्य जनता स्वमति अनुसार शब्द प्रयोग करने लगेगी जिससे अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है। जहाँ तक प्रतिक्रमण सम्बन्धी अतिचारों का प्रश्न है, अतिचार पाठ आत्म आलोचना का पाठ है अत: किसी भी भाषा में बोला जा सकता है। संभवत: अतिचार पाठ का स्वरूप देश, काल और परिस्थिति के अनुसार बदलता भी रहा है इसीलिए यह मरुगुर्जर आदि सरल भाषा में भी मिलता है।72 छह आवश्यक सूत्रों के कर्ता कौन?
जैन विद्वानों के अनुसार आवश्यक सूत्र तीर्थंकर एवं गणधर रचित न होकर किसी स्थविर आचार्य की कृति है। तब पुनः प्रश्न उठता है कि इस सूत्र की रचना किसी एक आचार्य ने की है या अनेक आचार्यों ने? पण्डित सुखलालजी के मतानुसार इस प्रश्न के प्रथम पक्ष के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इसका स्पष्ट उल्लेख कहीं देखने में नहीं आया है। दूसरे पक्ष का उत्तर यह है कि आवश्यक सूत्र किसी एक आचार्य की कृति नहीं है।73 इस मत के समर्थन में यह हेतु दिया गया है कि आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक सूत्र के समकाल में अथवा उससे किंचिद् परवर्ती काल में रचित दशवैकालिक सत्र के कर्ता के रूप में आचार्य शय्यंभवसरि का नामोल्लेख किया है। उन्होंने दशवैकालिकनियुक्ति में आचार्य शय्यंभव को दशवैकालिक के कर्ता रूप में स्मरण किया है।74 तब उससे पूर्ववर्ती या समवर्ती आवश्यक सूत्र के कर्ता का नाम निर्देश क्यों नहीं किया? इससे यह अनेक स्थविर आचार्यकृत