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आवश्यक का स्वरूप एवं उसके भेद ...25 रचना प्रतीत होती है। .
इस सम्बन्ध में दूसरा प्रमाण यह है कि आचार्य भद्रबाहु ने जिन दस ग्रन्थों पर नियुक्तियाँ लिखने की प्रतिज्ञा की है, उन ग्रन्थों को यदि कालक्रम से रचित मानें तो आवश्यक सूत्र का क्रम प्रथम होने से यह आचार्य शय्यंभव से पूर्व किसी स्थविर की कृति होना चाहिए, लेकिन कुछ अनुसंधानकर्ताओं का मानना है कि नियुक्ति के रचना क्रम में उत्तराध्ययन के बाद आचारांग का क्रम है। आचारांग प्रथम अंग आगम है तथा गणधर द्वारा रचित हैं। अत: नियुक्तियाँ लिखने की प्रतिज्ञा से जिन आगमों का निर्देश दिया गया है, उन्हें ऐतिहासिक क्रम से रचित नहीं माना जा सकता।75 इससे आवश्यक सूत्र के किसी कर्ता का असंदिग्ध रूप से निर्णय नहीं हो पाता है। यद्यपि आवश्यक सूत्र के कर्ता का नाम उपलब्ध न होने के कारण अपेक्षा भेद से इसे अनेक आचार्य कृत रचना स्वीकार की जा सकती है। ___ उक्त मत की पुष्टि में आचारांग टीका का यह उल्लेख भी मननीय है'आवश्यकान्तभूतश्चतुर्विंशतिस्तवारातीयकाल भाविना भद्रबाहुस्वामिनाऽकारि'।
इस उद्धरण से यह स्पष्ट है कि चतुर्विंशतिस्तव की रचना आचार्य भद्रबाहु द्वारा की गयी है। इससे भी यह फलित होता है कि आवश्यक किसी एक आचार्य की रचना न होकर आचार्य भद्रबाहु एवं उनके पूर्ववर्ती समकालीन अनेक बहुश्रुत आचार्यों की कृति हो। समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने भी उक्त तथ्य का समर्थन करते हए कहा है कि इस ग्रन्थ को आत्मालोचन का उत्कृष्ट माध्यम बनाना था इसलिए अनेक आचार्यों का सुझाव और चिंतन का योग अपेक्षित था। यदि आवश्यक सूत्र किसी एक आचार्य की कृति होती तो दशवकालिक के कर्ता की भाँति इसके कर्ता का नाम भी अत्यन्त प्रसिद्ध होता, क्योंकि यह प्रतिदिन सुबह और सायं स्मरण की जाने वाली कृति है। अत: आवश्यक सूत्र को अनेक आचार्यों की संयुक्त कृति स्वीकार करना चाहिए। आवश्यकसत्रों का रचनाकाल __ आवश्यक एक आध्यात्मिक अनुष्ठान है। इस क्रिया को मन, वचन और शरीर इन तीनों के शुभ योगपूर्वक सम्पन्न किया जाता है। मन के द्वारा दिन या पक्षादि में कृत दोषों का चिन्तन, वचन द्वारा सूत्र पाठ का उच्चारण एवं शरीर