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आवश्यक का स्वरूप एवं उसके भेद ...21
जा सकती है। अंततः प्रत्याख्यान आवश्यक के द्वारा संकल्प एवं मनोबल को मजबूत करते हुए अनावश्यक पापकार्यों से आत्म रक्षण एवं मर्यादा धारण कर जीवन में संतोषवृत्ति का विकास किया जाता है। इस प्रकार आवश्यक की साधना वैयक्तिक, आध्यात्मिक एवं मानसिक विकास में अनन्य सहायक है।
षडावश्यक के सामाजिक प्रभाव पर चिंतन करें तो एक सुदृढ़, संगठित एवं सुसंस्कारी समाज के निर्माण में इसकी अहम् भूमिका हो सकती है। सामायिक की साधना से मन-वचन-काया पर नियंत्रण करते हुए पारिवारिक स्नेह में अभिवृद्धि एवं क्लेश का समापन किया जा सकता है। समभाव द्वारा सामाजिक वैमनस्य का निवारण भी किया जा सकता है । चतुर्विंशतिस्तव के द्वारा समाज में योग्य व्यक्तियों का विकास एवं गुणिजनों को आदर बहुमान प्राप्त हो सकता है । वन्दन आवश्यक के माध्यम से आज घरों में गौण हो रहे बड़ों के स्थान एवं वर्चस्व तथा छोटों में बढ़ती स्वतंत्रवृत्ति एवं उच्छृंखलता को कम किया जा सकता है। साधु-साध्वी एवं वरिष्ठ जनों के प्रति आदर-सम्मान की भावना को पुष्ट किया जा सकता है। प्रतिक्रमण के द्वारा आपसी मतभेदों को मिटाकर समाज में परस्पर सहयोग, स्नेह आदि का निर्माण किया जा सकता है। तथा सामाजिक दोषों का उन्मूलन करते हुए एक स्वस्थ समाज की संरचना की जा सकती है। कायिक संतुष्टि के लिए आज प्रत्येक क्षेत्र में मर्यादा का जो उल्लंघन किया जा रहा है उसको नियंत्रित करने में कायोत्सर्ग की साधना फलवती हो सकती है। इसी प्रकार प्रत्याख्यान आवश्यक के माध्यम से समाज में बढ़ रहे आर्थिक भेद एवं भोगवादी प्रवृत्ति को अध्यात्म की ओर प्रवर्तित किया जा सकता है।
वर्तमान समस्याओं के संदर्भ में यदि आवश्यक विधि की उपयुज्यता पर विमर्श करें तो इसके द्वारा अनेकानेक समस्याओं का समाधान प्राप्त किया जा सकता है। वैयक्तिक समस्याएँ जैसे कि तनाव, उग्रता, आवेश आदि एवं शारीरिक समस्याएँ मन की चंचलता आदि का निवारण समभाव, विनय, कायोत्सर्ग आदि के द्वारा किया जा सकता है जो कि षडावश्यक की साधना से प्राप्त होते हैं। पारिवारिक समस्याएँ जैसे कि पक्षपात, आपसी मनमुटाव, ईर्ष्या, पूज्यजनों के प्रति अनादर - अविनय आदि का निराकरण करने के लिए एवं