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20... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
प्रसन्नता तो प्राप्त की जा सकती है, किन्तु चिरस्थायी प्रसन्नता आवश्यक क्रिया की पूर्वोक्त उपलब्धियों पर ही संभव है। कौटुम्बिक सुख का प्रमुख आधार परस्पर में छोटे-बड़े का यथोचित विनय करना, अनुशासन बद्ध रहना, चारित्रशील होना, वैयावृत्य करना और सक्रिय रहना आदि हैं। षडावश्यक क्रिया का विधियुत आचरण करने पर इन गुणों का सहज रूप से पोषण होता है।
सामाजिक उन्नति के लिए दीर्घदर्शिता, गम्भीरता, प्रामाणिकता, व्रतनिष्ठता, गुणग्राहकता आदि गुण अपेक्षित हैं, जो आवश्यक क्रिया के माध्यम से निःसन्देह प्रकट हो जाते हैं।
इस तरह हम देखते हैं कि आवश्यक अनुष्ठान आभ्यन्तर और बाह्य दोनों दृष्टियों से परम लाभकारी है तथा प्रकृष्ट गुणों की अभिवृद्धि एवं प्राप्त गुणों के संपोषण हेतु यह क्रिया अत्यन्त उपयोगी है। यदि मनुष्य नियमित रूप से इस साधना का प्रयोग करता रहे तो वह कभी भी नैतिक जीवन से पतित नहीं हो सकता,उसकी आत्म प्रतिष्ठा खण्डित नहीं हो सकती एवं विकटतम स्थिति में भी अपना सम्यक लक्ष्य विस्मृत नहीं कर सकता।
विविध सन्दर्भों में षडावश्यक की प्रासंगिकता
आवश्यक यह जैन साधना का महत्त्वपूर्ण अंग है। वैयक्तिक एवं मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में यदि इसकी आवश्यकता पर विचार करें तो वर्तमान आपा-धापी के युग में इसकी अत्यन्त उपादेयता है ।
आवश्यक क्रिया के अन्तर्गत सामायिक आदि करने से द्रव्य और भाव दोनों की शुद्धि होती है, परिणाम निर्मल बनते हैं, मन से क्रोधादि कषाय भावों का उन्मूलन होता है तथा मानसिक शांति की प्राप्ति होती है ।
चतुर्विंशतिस्तव की साधना गुण ग्रहण एवं गुणानुमोदन की वृत्ति को बढ़ाती है, इससे स्वगुणों का आत्यंतिक विकास होता है। वंदन आवश्यक के द्वारा विनम्रता एवं लघुता गुण प्रकट होने से साधक सभी के स्नेह एवं आशीर्वाद का पात्र बनता है । प्रतिक्रमण आवश्यक के द्वारा स्व दोषों एवं दुर्गुणों का अवलोकन करते हुए उनका परिमार्जन कर भावों को विशुद्ध एवं सम्बन्धों को भी मधुर बनाया जा सकता है। कायोत्सर्ग के माध्यम से कायिक चेष्टाओं को न्यून कर शरीर के प्रति ममत्व भाव को कम करते हुए इन्द्रिय विजय प्राप्त की