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आवश्यक का स्वरूप एवं उसके भेद 19
पुरुषार्थ शतगुणित हो जाता है। जिसकी फलश्रुति यह होती है कि कर्म सम्बद्ध आत्मा शनैः शनै: अपने शुद्ध स्वरूप में स्थिर होकर जन्म, मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाती है। प्रतिक्रमण का आध्यात्मिक फल दोष विमुक्ति है।
जरा
कायोत्सर्ग त्रियोग की एकाग्रता में अभिवर्धन करता है और संसारी जीव को अपने स्वरूप चिन्तन एवं उसके प्रगटीकरण का अमूल्य अवसर प्रदान करता है जिससे यह चेतन तत्त्व स्व-सामर्थ्य से परिचित होकर अपने चरम उद्देश्य को सिद्ध कर सकता है इस तरह कायोत्सर्ग की क्रिया भी आध्यात्मिक विशुद्धि रूप है। इस संसार में अनन्त पदार्थ हैं। एकाकी व्यक्ति इस जीवन में न तो सब पदार्थों का भोग कर सकता है और न ही सब पदार्थ भोगने योग्य हैं। दूसरे, अपरिमित भोग से पर्याप्त शान्ति का अनुभव भी नहीं होता। अत: प्रत्याख्यान द्वारा अनावश्यक वस्तुओं के परिभोग का वर्जन किया जाता है और उससे चिरकालीन आत्मिक शान्ति का उद्भव होता है। अतएव प्रत्याख्यान क्रिया भी आध्यात्मिक परिणाम की जनक है।
आवश्यक क्रिया का व्यावहारिक महत्त्व भी मननीय है। यह साधारण मानव जाति के लिए कदम-कदम पर सहायक होने वाली साधना है। जीवन यात्रा को सुखद एवं आनन्द से परिपूर्ण बनाने के लिए समन्वय दृष्टि को आत्मसात करना, जगत पूज्य तीर्थंकर पुरुषों को आदर्श रूप में स्वीकार कर तद्रूप बनने का लक्ष्य निश्चित करना, गुणीजनों का बहुमान एवं विनय आदि करना, कर्त्तव्यनिष्ठ होना, कर्त्तव्य पालन में हो जाने वाली भूलों का अवलोकन कर निष्कपट भाव से उनका संशोधन करना, दूसरी बार उस तरह की गल्तियाँ न हों इसके लिए सतत सावधान रहना, एकाग्रचित्त पूर्वक वस्तु स्वरूप को भलीभाँति समझ सकें, ऐसी विवेक शक्ति जागृत करना और अनावश्यक भोगों के त्याग पूर्वक संतोष वृत्ति का विकास करना आदि आवश्यक कर्म की व्यवहार प्रधान शिक्षाएँ है। इन तत्त्वों के आधार पर व्यवहारिक स्तर पर जीवन जीने वाले प्राणी भी दैवीय सुख का अनुभव कर सकते हैं।
इस क्रिया के माध्यम से बाह्य पक्ष के अन्य पहलू आरोग्यता, कौटुम्बिक सुख, सामाजिक उन्नति आदि भी सुदृढ़ बनते हैं। आरोग्य सुख का मुख्य हेतु मानसिक प्रसन्नता है। इस दुनिया के मूल्यवान भौतिक संसाधनों से क्षणिक