________________
18...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में षडावश्यक कर्म का मूलो उद्देश्य अध्यात्म पक्ष को परिपुष्ट करते हुए शाश्वत सुख की उपलब्धि करना है। यहाँ व्यावहारिक पक्ष गौण है फिर भी जैसे धान्योत्पत्ति के साथ घास-तृण आदि की प्राप्ति स्वत: हो जाती है वैसे ही अन्तरंग शुद्धि के साथ बाह्य व्यवहार की शुद्धि स्वयमेव हो जाती है। अपने परिणामों की अपेक्षा से इसका मूल्य दोहरा है। छहों आवश्यकों में प्रत्येक आवश्यक की फलश्रुति अध्यात्म से परिपूर्ण है।
सामायिक द्वारा पापजनक व्यापार से निवृत्ति होती है, जिससे पूर्वबद्ध कर्म प्रदेशों का क्षरण और आत्मा के स्वाभाविक गुणों का प्रकटन होता है।
चतुर्विंशतिस्तव द्वारा गुणानुराग की अभिवृद्धि एवं गुण प्राप्ति होने से वैभाविक पुद्गल कर्मों का निर्गमन होता है, जिससे स्व-स्वरूप की अनुभूति रूप अध्यात्म का उदय होता है।
__ वन्दन क्रिया द्वारा विनय धर्म का पालन, अहंकार का विसर्जन, गुणयुक्त पुरुषों की पूजा, जगत वन्दनीय तीर्थंकर परमात्मा की आज्ञा का अनुसरण और श्रुतधर्म की आराधना होती है, जो आत्मशक्ति का क्रमिक विकास करते हुए मोक्ष प्राप्ति के कारण भूत बनते हैं। भावयुत वन्दन से लघुता गुण प्रकट होता हैं, उससे शास्त्र श्रवण के अवसर की प्राप्ति होती है। शास्त्र श्रवण द्वारा क्रमश: ज्ञान, विज्ञान, प्रत्याख्यान, संयम, अनास्रव, तप, कर्म क्षय, अक्रिया और सिद्धि- ये फल उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार वन्दन आवश्यक आत्मा के स्वाभाविक गुणों की उत्पत्ति का असंदिग्ध कारण है।
आत्मा स्वरूपतः शुद्ध एवं अतुल शक्ति सम्पन्न है, किन्तु मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के संयोग के कारण अनादि काल से विषय-वासनाओं एवं वैभाविक परिणतियों में रचा-पचा हुआ है। मिथ्यात्व के घनीभूत होने से उसका अप्रतिहत स्व-स्वरूप धूमिल सा हो गया है ऐसी स्थिति में जब वह सत्य दिशा की ओर अग्रसर होने का प्रयत्न करता है तो कुसंस्कारों के प्रबल वेग से पुन: गिर जाता है। इसके लिए आवश्यक है कि व्यक्ति आत्माभिमुखी होकर पूर्व अभ्यासित दोषों का संशोधन-परिमार्जन करें। प्रतिक्रमण द्वारा यही प्रक्रिया की जाती है। इस साधना में तन्मय बना हुआ व्यक्ति पूर्वकृत प्रत्येक भूलों का स्मरण कर उन्हें पुन: से न करने का संकल्प व्रत ग्रहण करता है, इससे पूर्वसंचित दोषों का निवर्त्तन और नये दोषों का संवरण होता है तथा सम्यक योग में उसका