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आवश्यक का स्वरूप एवं उसके भेद ... 17
कर देता है अर्थात गृहीत व्रत को दूषण रहित कर देता है। साथ ही पापाश्रवों का निरोध एवं शबल आदि दोषों से रहित चारित्र को शुद्ध रखता हुआ अष्ट प्रवचन माताओं के आराधन में सतत सावधान रहता है और चारित्रयोग में सम्यक रूप से प्रवृत्त बन समाधिपूर्वक जीवन यात्रा का निर्वाह करता है यानी आत्म स्वभाव में विचरण करता है। 65
पाँचवें कायोत्सर्ग आवश्यक को व्रण चिकित्सा कहा गया है। छद्मस्थ अवस्था में प्रमादवश या अनायास ही अनेक प्रकार के दोष लगते रहते हैं। अध्यात्मवेत्ताओं ने दोष को जख्म (व्रण) के तुल्य और कायोत्सर्ग को मरहम पट्टी के समान माना है । अत: कायोत्सर्ग के द्वारा दोष रूपी जख्मों की चिकित्सा की जाती है तथा देहासक्ति का भाव न्यून होने से भेद विज्ञान की धारणा पुष्ट होती है। कायोत्सर्ग से अतीत और वर्तमान के प्रायश्चित्त योग्य अतिचारों का विशोधन (निवर्तन) होता है। फलतः आत्मा निर्धार और प्रशस्त ध्यान के उपयुक्त हो जाती है ।" जैनागमों में कायोत्सर्ग को सब दुःखों से मुक्त करने का परम हेतु माना गया है। 67
अंतिम प्रत्याख्यान आवश्यक के माध्यम से भविष्य में किसी तरह की दुष्प्रवृत्ति न करने का संकल्प किया जाता है जिससे इच्छाओं का निरोध और संवर की शक्ति का विकास होता है। प्रत्याख्यान करने वाला जीव अनेक प्रकार के आश्रवों का निरोध (त्याग) कर देता है। 68 सिद्धान्ततः जब तक किसी वस्तु का परित्याग नहीं किया जाता उसकी आसक्ति दूर नहीं होती और उसके निमित्त से नये कर्मों का आगमन शुरू रहता है । प्रत्याख्यान करने से इच्छाओं का शमन ही नहीं, वरन् तृष्णाजन्य मन की चंचलता समाप्त हो जाती है और साधक परम शान्ति का अनुभव करता है।
अतः अध्यात्म क्षेत्र में अनवरत रूप से गतिशील एवं आत्म स्वरूप की अभिव्यक्ति हेतु आवश्यक क्रिया अपरिहार्य रूप से उपादेय हैं। आचार्य कुंदकुंद के अभिप्राय से श्रमण का चारित्र धर्म आवश्यक साधना पर ही अवलम्बित है, अन्यथा वह चारित्र से भ्रष्ट हो जाता है | 69
आवश्यक क्रिया का महत्त्व
आवश्यक क्रिया जैनत्व का मुख्य अंग है। इस क्रिया के माध्यम से आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक उभय पक्षीय जीवन समृद्ध एवं सशक्त बनता है।