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आवश्यक का स्वरूप एवं उसके भेद ...15
उपदेष्टा सद्गुरु को भी भावपूर्वक वन्दन नहीं कर सकता है। श्रद्धासिक्त हृदय से देव तत्त्व को स्वीकार करने वाला ही गुरु तत्त्व की उपासना कर सकता है अतः चतुर्विंशतिस्तव के अनन्तर वन्दन आवश्यक को स्थान दिया है।
वन्दन करने वाला व्यक्ति स्वतः निर्मल एवं सरल होता है। सरल व्यक्ति ही कृत दोषों की आलोचना कर सकता हैं अतः वंदना के पश्चात प्रतिक्रम आवश्यक का निरूपण है। पंडित सुखलालजी के अनुसार वन्दन के पश्चात प्रतिक्रमण को रखने का आशय यह है कि आलोचना गुरु के समक्ष की जाती है। जो गुरु को वन्दन नहीं करता वह आलोचना का अधिकारी भी नहीं बनता क्योंकि अहंकार के विगलित होने पर ही ऋजु भाव का उदय होता है और तभी विशुद्ध आलोचना अर्थात स्वकृत दुष्कार्यों का यथातथ्य रूप में गुरु के समक्ष निवेदन किया जा सकता है | 60
प्रमाद या अज्ञानवश हुई भूलों का स्मरण एवं सद्गुरु के समक्ष उसका निवेदन करने पर चित्त शुद्धि तो हो जाती है, किन्तु उन दोषों से मुक्ति पाने के लिए तन एवं मन में स्थैर्य होना आवश्यक है और वह कायोत्सर्ग द्वारा ही संभव है। कायोत्सर्ग में तन और मन को स्थिर एवं एकाग्र करने का अभ्यास किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप स्वयमेव कृत दोषों का परिमार्जन हो जाता है। जो साधक चित्त शुद्धि किए बिना कायोत्सर्ग करता है, उसके मुख ही किसी शब्द विशेष का जप या श्वासोश्वास के निरीक्षण का क्रम वर्त्तमान रहे, लेकिन उसकी चेतना में श्रेष्ठ ध्येय का विचार कभी जागृत नहीं होता, वह अनुभूत विषय का ही चिन्तन करता रहता है। अतः प्रतिक्रमण के बाद कायोत्सर्ग आवश्यक को प्रमुखता दी गई है।
जब व्यक्ति के जीवन में स्थिरता एवं एकाग्रता सध जाती है और उसके फलस्वरूप विशिष्ट तरह का आत्मबल प्राप्त कर लेता है तभी वह अकरणीय का प्रत्याख्यान कर सकता है। जिसका चित्त डांवाडोल हो, एकाग्र न हो, वह कदाच् प्रत्याख्यान ग्रहण भी कर लें तो उसका सम्यक रूप से निर्वहन नहीं कर सकता है। प्रत्याख्यान सबसे उत्तम प्रकार की आवश्यक क्रिया है । अतएव उसके लिए विशिष्ट चित्त शुद्धि और अगणित उत्साह होना अनिवार्य है, जो कायोत्सर्ग के बिना असंभव है। इसी अभिप्राय से कायोत्सर्ग के पश्चात प्रत्याख्यान आवश्यक को रखा गया है।