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14...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
यदि क्रम की अपेक्षा देखें तो श्वेताम्बर और दिगम्बर के मूलाचार में प्राय: समरूपता है केवल अन्तिम दो क्रमों में भेद हैं जबकि कुन्दकुन्द द्वारा मान्य आवश्यक क्रम में काफी अन्तर है। उन्होंने यह क्रम किस उद्देश्य से रखा है? यह विज्ञों के लिए अन्वेषणीय है। षडावश्यकों का क्रम वैशिष्ट्य
__ आवश्यक छह प्रकार के कहे गए हैं- 1. सामायिक 2. चतुर्विंशतिस्तव 3. वंदन 4. प्रतिक्रमण 5. कायोत्सर्ग और 6. प्रत्याख्यान। आवश्यक साधना का यह क्रम कार्य-कारण भाव की श्रृंखला पर आधारित एवं पूर्ण वैज्ञानिक है। अन्तर्मुखी साधक के लिए सर्वप्रथम समभाव की प्राप्ति होना परमावश्यक है। साथ ही उसके जीवन का प्रधान उद्देश्य भी समत्व दशा को उपलब्ध करना होता है। टीकाकार शान्त्याचार्य के अनुसार विरत व्यक्ति ही सामायिक साधना कर सकता है, क्योंकि सावध योगों से निवृत्त होने की स्थिति में ही 'आत्मवत सर्वभूतेषु' जैसे महान विचारों का आविर्भाव होता है। अत: समता अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश करने का प्रथम सोपान है। आत्मतुला सिद्धान्त को यह सामायिक की साधना के द्वारा ही चरितार्थ करना संभव है अत: इस आवश्यक को प्रथम क्रम पर रखा गया है।
जब तक अन्तर्हृदय में समता का अवतरण नहीं हो, विषम भाव की ज्वालाएँ धधक रही हो तब तक समत्वगुण को उपलब्ध कर स्व-स्वरूप में स्थित तीर्थंकर महापुरुषों के गुणों का उत्कीर्तन नहीं किया जा सकता। वस्तुत: जो स्वयं समभाव को प्राप्त नहीं है वह समभाव स्थित वीतरागी पुरुषों का गुणगान कैसे कर सकता है? अत: जो साधक स्वयं समत्व का अनुभव कर लेता है वही उस पूर्णता के शिखर पर अवस्थित वीतराग के गुणों का वास्तविक संकीर्तन अथवा संस्तवन कर उनके गुणों को अपनाने की दिशा में प्रस्थान कर सकता है इसलिए सामायिक के पश्चात दूसरे क्रम पर चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक को रखा गया है।
जब व्यक्ति के जीवन में प्रमोद भाव या गण ग्राहकता का विकास होता है तभी अपने से अधिक ज्ञानी एवं चारित्रवान पुरुषों के चरणों में उसका मस्तक झक सकता है, भक्ति भावना से अन्तर्विभोर होकर उन्हें वन्दन कर सकता है। दूसरे, जिसने तीर्थंकर के गुणों की स्तवना नहीं की है, वह तीर्थंकर मार्ग के