________________
आवश्यक का स्वरूप एवं उसके भेद ...13 नियोजित कर दोनों समय (सुबह-शाम) में आवश्यक रूप प्रतिक्रमण आदि क्रिया करते हैं, वह लोकोत्तरिक भाव आवश्यक है।55
यहाँ श्रमण आदि के लिए प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ अवश्य करने योग्य होने से आवश्यक है। इन क्रियाओं को करने वालों का उनमें उपयोग प्रवर्त्तमान रहने से भाव रूपता है तथा आवश्यक क्रियाएँ स्वयं आगम रूप नहीं हैं। इस प्रकार आवश्यक क्रिया रूप एकदेश में अनागमता है, किन्तु इनके ज्ञान रूप एक देश में आगम का सद्भाव होने से यह नोआगम लोकोत्तरिक भाव आवश्यक कहलाता है।56
इस तरह हम देखते हैं कि द्रव्य आवश्यक और भाव आवश्यक अवान्तर भेदों वाला होने से अनेक प्रकार का है। श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में मान्य आवश्यकों की तुलना
श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों परम्पराओं में आवश्यक के छह प्रकार स्वीकृत हैं और संख्या की दृष्टि से दोनों में पूर्ण एक्य है किन्तु नाम, क्रम एवं स्वरूप की अपेक्षा किंचिद् भेद दिखाई देता है। श्वेताम्बर परम्परा में छह आवश्यक इस क्रम से मान्य हैं- 1. सामायिक 2. चतुर्विंशतिस्तव 3. वंदन 4. प्रतिक्रमण 5. कायोत्सर्ग और 6. प्रत्याख्यान।57
दिगम्बर परम्परा के आचार्य कुन्दकुन्द के नियमसार में छह आवश्यक के नाम निम्न क्रम से मिलते हैं- 1. प्रतिक्रमण 2. प्रत्याख्यान 3. आलोचना 4. कायोत्सर्ग 5. सामायिक और 6. परम भक्ति।58 आचार्य वट्टकेर रचित मूलाचार में छह आवश्यकों के नाम निम्न क्रम से प्राप्त होते हैं- 1. समता (सामायिक) 2. स्तव 3. वंदन 4. प्रतिक्रमण 5. प्रत्याख्यान और 6. व्युत्सर्ग:59
यदि उपर्युक्त नामों में अर्थ की दृष्टि से तुलना करें तो आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा मान्य आलोचना नामक तृतीय आवश्यक को छोड़कर शेष में प्रायः समानता है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वीकृत परम भक्ति नामक छटवें आवश्यक को श्वेताम्बर के चतुर्विंशतिस्तव नामक द्वितीय आवश्यक के समकक्ष तथा आचार्य वट्टर द्वारा निर्दिष्ट व्युत्सर्ग नामक षष्ठम आवश्यक को श्वेताम्बर के कायोत्सर्ग नामक पंचम आवश्यक के समतुल्य माना जा सकता है। स्वरूपतः परम भक्ति और चतुर्विंशतिस्तव, व्युत्सर्ग और कायोत्सर्ग में कोई अन्तर नहीं है।