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12... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
(ii) नोआगमतः भाव आवश्यक- जो साधु आवश्यक शास्त्रों का पूर्णतः ज्ञाता है किन्तु तद्रूप व्यापार में आंशिक प्रवृत्ति है तो उसकी क्रिया नोआगमतः भाव आवश्यक कहलाती है |50
अनुयोगद्वार में नोआगमतः भाव आवश्यक तीन प्रकार का निर्दिष्ट है(i) लौकिक (ii) कुप्रावचनिक और (iii) लोकोत्तरिक। 51
लौकिक भाव आवश्यक - दिन के पूर्वार्ध में महाभारत का और उत्तरार्ध में रामायण का वाचन और श्रवण करना लौकिक भाव आवश्यक है 1 52
लोक व्यवहार में आगम रूप में मान्य महाभारत, रामायण आदि का नियत समय पर वाचन और श्रवण अवश्य करने योग्य है अतएव इन शास्त्रों की पठन-पाठन रूप प्रवृत्ति लौकिक आवश्यक है और उनके अर्थ में वक्ता एवं श्रोता के उपयोग रूप परिणाम होने से भावरूपता है, किन्तु वक्ता का वचन व्यवहार, हाथ का संकेत तथा श्रोता के द्वारा कर युगल को जोड़ना आदि रूप क्रियाएँ आगम रूप नहीं है। कहा गया है कि- 'किरिया आगमों न होई'- क्रिया आगम नहीं होती है, ज्ञान ही आगम रूप है। इसलिए क्रियारूपता में आगम का अभाव होने से नोआगमता है। इस तरह एकदेश में आगमता ( यथार्थता) की अपेक्षा यह नोआगम लौकिक भाव आवश्यक है |53
कुप्रावचनिक भाव आवश्यक - मिथ्या शास्त्रों को स्वीकार कर उसका प्रतिपादन करने वाले चरक, चर्मखण्डिक, पाखंडी आदि के द्वारा जो भाव सहित यज्ञ, होम, जाप, वंदन आदि क्रियाएँ की जाती हैं, वे कुप्रावचनिक भाव आवश्यक है।
चरक आदि द्वारा यज्ञादि क्रियाएँ अवश्य करने योग्य होने से आवश्यक रूप हैं तथा इन क्रियाओं को करने वालों का उनमें उपयोग एवं श्रद्धा होने से भाव रूपता है। दूसरे इन चरक आदि का यज्ञादि क्रियाओं में उपयोग होने से देशतः आगम रूप है लेकिन हाथ, सिर आदि द्वारा होने वाली प्रवृत्ति आगम रूप नहीं है। इसलिए एकदेश प्रतिषेध रूप नोआगमता है। इस तरह एक देश में आगमता होने से यह नोआगम कुप्रावचनिक भाव आवश्यक है। 54
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लोकोत्तरिक भाव आवश्यक- जो श्रमण - श्रमणी श्रावक-श्राविकायें मन की एकाग्रता, शुभ लेश्या एवं निर्मल अध्यवसाय से युक्त होकर तीव्र आत्मोत्साह पूर्वक तथा उसके अर्थ से उपयोग युक्त होकर व शरीरादि को